छन्द (Metres) की परिभाषा
वर्णो या मात्राओं के नियमित संख्या के विन्यास से यदि आहाद पैदा हो, तो उसे छंद कहते है।
दूसरे शब्दो में-अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रागणना तथा यति-गति से सम्बद्ध विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्यरचना ‘छन्द’ कहलाती है।
महर्षि पाणिनी के अनुसार जो आह्मादित करे, प्रसन्न करे, वह छंद है (चन्दति हष्यति येन दीप्यते वा तच्छन्द) ।
उनके विचार से छंद ‘चदि’ धातु से निकला है। यास्क ने निरुक्त में ‘छन्द’ की व्युत्पत्ति ‘छदि’ धातु से मानी है जिसका अर्थ है ‘संवरण या आच्छादन’ (छन्दांसि छादनात्) ।
इन दोनों अतिप्राचीन परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि छंदोबद्ध रचना केवल आह्यादकारिणी ही नहीं होती, वरन् वह चिरस्थायिनी भी होती है। जो रचना छंद में बँधी नहीं है उसे हम याद नहीं रख पाते और जिसे याद नहीं रख पाते, उसका नष्ट हो जाना स्वाभाविक ही है। इन परिभाषाओं के अतिरिक्त सुगमता के लिए यह समझ लेना चाहिए कि जो पदरचना अक्षर, अक्षरों की गणना, क्रम, मात्रा, मात्रा की गणना, यति-गति आदि नियमों से नियोजित हो, वह छंदोबद्ध कहलाती है।
छंद शब्द ‘छद्’ धातु से बना है जिसका अर्थ है ‘आह्लादित करना’, ‘खुश करना।’ ‘छंद का दूसरा नाम पिंगल भी है। इसका कारण यह है कि छंद-शास्त्र के आदि प्रणेता पिंगल नाम के ऋषि थे।
‘छन्द’ की प्रथम चर्चा ऋग्वेद में हुई है। यदि गद्य का नियामक व्याकरण है, तो कविता का छन्दशास्त्र। छन्द पद्य की रचना का मानक है और इसी के अनुसार पद्य की सृष्टि होती है। पद्यरचना का समुचित ज्ञान ‘छन्दशास्त्र’ का अध्ययन किये बिना नहीं होता। छन्द हृदय की सौन्दर्यभावना जागरित करते है। छन्दोबद्ध कथन में एक विचित्र प्रकार का आह्राद रहता है, जो आप ही जगता है। तुक छन्द का प्राण है- यही हमारी आनन्द-भावना को प्रेरित करती है। गद्य में शुष्कता रहती है और छन्द में भाव की तरलता। यही कारण है कि गद्य की अपेक्षा छन्दोबद्ध पद्य हमें अधिक भाता है।
सौन्दर्यचेतना के अतिरिक्त छन्द का प्रभाव स्थायी होता है। इसमें वह शक्ति है, जो गद्य में नहीं होती। छन्दोबद्ध रचना का हृदय पर सीधा प्रभाव पड़ता है। गद्य की बातें हवा में उड़ जाती है, लेकिन छन्दों में कही गयी कोई बात हमारे हृदय पर अमिट छाप छोड़ती है। मानवीय भावों को आकृष्ट करने और झंकृत करने की अदभुत क्षमता छन्दों में होती है। छन्दाबद्ध रचना में स्थायित्व अधिक है। अपनी स्मृति में ऐसी रचनाओं को दीर्घकाल तक सँजोकर रखा जा सकता है। इन्हीं कारणों से हिन्दी के कवियों ने छन्दों को इतनी सहृदयता से अपनाया। अतः छन्द अनावश्यक और निराधार नहीं हैं। इनकी भी अपनी उपयोगिता और महत्ता है। हिन्दी में छन्दशास्त्र का जितना विकास हुआ, उतना किसी भी देशी-विदेशी भाषा में नहीं हुआ।
छन्द के अंग
छन्द के निम्नलिखित अंग है-
(1) चरण /पद /पाद
(2) वर्ण और मात्रा
(3) संख्या क्रम और गण
(4) लघु और गुरु
(5) गति
(6) यति /विराम
(7) तुक
(1) चरण /पद /पादा
छंद के प्रायः 4 भाग होते हैं। इनमें से प्रत्येक को ‘चरण’ कहते हैं।
दूसरे शब्दों में- छंद के चतुर्थाश (चतुर्थ भाग) को चरण कहते हैं।
कुछ छंदों में चरण तो चार होते है लेकिन वे लिखे दो ही पंक्तियों में जाते हैं, जैसे- दोहा, सोरठा आदि। ऐसे छंद की प्रत्येक को ‘दल’ कहते हैं।
हिन्दी में कुछ छंद छः-छः पंक्तियों (दलों) में लिखे जाते हैं। ऐसे छंद दो छंदों के योग से बनते है, जैसे कुण्डलिया (दोहा +रोला), छप्पय (रोला +उल्लाला) आदि।
चरण 2 प्रकार के होते है- सम चरण और विषम चरण।
प्रथम व तृतीय चरण को विषम चरण तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण को सम चरण कहते हैं।
(2) वर्ण और मात्रा
वर्ण/अक्षर
एक स्वर वाली ध्वनि को वर्ण कहते हैं, चाहे वह स्वर हस्व हो या दीर्घ।
जिस ध्वनि में स्वर नहीं हो (जैसे हलन्त शब्द राजन् का ‘न्’, संयुक्ताक्षर का पहला अक्षर- कृष्ण का ‘ष्’) उसे वर्ण नहीं माना जाता।
वर्ण को ही अक्षर कहते हैं। ‘वर्णिक छंद’ में चाहे हस्व वर्ण हो या दीर्घ- वह एक ही वर्ण माना जाता है; जैसे- राम, रामा, रम, रमा इन चारों शब्दों में दो-दो ही वर्ण हैं।
वर्ण 2 प्रकार के होते हैं-
(i)हस्व स्वर वाले वर्ण (हस्व वर्ण): अ, इ, उ, ऋ; क, कि, कु, कृ
(ii)दीर्घ स्वर वाले वर्ण (दीर्घ वर्ण) : आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ; का, की, कू, के, कै, को, कौ
मात्रा
किसी वर्ण या ध्वनि के उच्चारण-काल को मात्रा कहते हैं।
दूसरे शब्दों में- किसी वर्ण के उच्चारण में जो अवधि लगती है, उसे मात्रा कहते हैं।
हस्व वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे एक मात्रा तथा दीर्घ वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे दो मात्रा माना जाता है।
मात्रा दो प्रकार के होते है-
हस्व : अ, इ, उ, ऋ
दीर्घ : आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ
वर्ण और मात्रा की गणना
वर्ण की गणना
हस्व स्वर वाले वर्ण (हस्व वर्ण)- एकवर्णिक- अ, इ, उ, ऋ; क, कि, कु, कृ
दीर्घ स्वर वाले वर्ण (दीर्घ वर्ण)- एकवर्णिक- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ; का, की, कू, के, कै, को, कौ
मात्रा की गणना
हस्व स्वर- एकमात्रिक- अ, इ, उ, ऋ
दीर्घ स्वर- द्विमात्रिक- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ
वर्णो और मात्राओं की गिनती में स्थूल भेद यही है कि वर्ण ‘सस्वर अक्षर’ को और मात्रा ‘सिर्फ स्वर’ को कहते है।
वर्ण और मात्रा में अंतर-
वर्ण में हस्व और दीर्घ रहने पर वर्ण-गणना में कोई अंतर नहीं पड़ता है, किंतु मात्रा-गणना में हस्व-दीर्घ से बहुत अंतर पड़ जाता है। उदाहरण के लिए, ‘भरत’ और ‘भारती’ शब्द कोलें। दोनों में तीन वर्ण हैं, किन्तु पहले में तीन मात्राएँ और दूसरे में पाँच मात्राएँ हैं।
(3) संख्या क्रम और गण
वर्णो और मात्राओं की सामान्य गणना को संख्या कहते हैं, किन्तु कहाँ लघुवर्ण हों और कहाँ गुरुवर्ण हों- इसके नियोजन को क्रम कहते है।
छंद-शास्त्र में तीन मात्रिक वर्णो के समुदाय को गण कहते है।
वर्णिक छंद में न केवल वर्णों की संख्या नियत रहती है वरन वर्णो का लघु-गुरु-क्रम भी नियत रहता है।
मात्राओं और वर्णों की ‘संख्या’ और ‘क्रम’ की सुविधा के लिए तीन वर्णों का एक-एक गण मान लिया गया है। इन गणों के अनुसार मात्राओं का क्रम वार्णिक वृतों या छन्दों में होता है, अतः इन्हें ‘वार्णिक गण’ भी कहते है। इन गणों की संख्या आठ है। इनके ही उलटफेर से छन्दों की रचना होती है। इन गणों के नाम, लक्षण, चिह्न और उदाहरण इस प्रकार है-
गण | वर्ण क्रम | चिह्न | उदाहरण | प्रभाव |
यगण | आदि लघु, मध्य गुरु, अन्त गुरु | ।ऽऽ | बहाना | शुभ |
मगन | आदि, मध्य, अन्त गुरु | ऽऽ | आजादी | शुभ |
तगण | आदि गुरु, मध्य गुरु, अन्त लघु | ऽऽ। | बाजार | अशुभ |
रगण | आदि गुरु, मध्य लघु, अन्त गुरु | ऽ।ऽ | नीरजा | अशुभ |
जगण | आदि लघु, मध्य गुरु, अन्त लघु | ।ऽ। | प्रभाव | अशुभ |
भगण | आदि गुरु, मध्य लघु, अन्त लघु | ऽ।। | नीरद | शुभ |
नगण | आदि, मध्य, अन्त लघु | ।।। | कमल | शुभ |
सगन | आदि लघु, मध्य लघु, अन्त गुरु | ।।ऽ | वसुधा | अशुभ |
काव्य या छन्द के आदि में ‘अगण’ अर्थात ‘अशुभ गण’ नहीं पड़ना चाहिए। शायद उच्चारण कठिन अर्थात उच्चारण या लय में दग्ध होने के कारण ही कुछ गुणों को ‘अशुभ’ कहा गया है। गणों को सुविधापूर्वक याद रखने के लिए एक सूत्र बना लिया गया है- यमाताराजभानसलगा: । इस सूत्र में प्रथम आठ वर्णों में आठ गणों के नाम आ गये है। अन्तिम दो वर्ण ‘ल’ और ‘ग’ छन्दशास्त्र में ‘दशाक्षर’ कहलाते हैं। जिस गण का स्वरूप जानना हो, उस गण के आद्यक्षर और उससे आगे दो अक्षरों को इस सूत्र से ले लेना होता है। जैसे- ‘तगण’ का स्वरूप जानना हो तो इस सूत्र का ‘ता’ और उससे आगे के दो अक्षर ‘रा ज’=’ताराज’, ( ऽऽ।) लेकर ‘तगण’ का लघु-गुरु जाना जा सकता है कि ‘तगण’ में गुरु+गुरु+लघु, इस क्रम से तीन वर्ण होते है। यहाँ यह स्मरणीय है कि ‘गण’ का विचार केवल वर्णवृत्त में होता है, मात्रिक छन्द इस बन्धन से मुक्त है।
(4) लघु और गुरु
लघु-
(i) अ, इ, उ- इन हस्व स्वरों तथा इनसे युक्त एक व्यंजन या संयुक्त व्यंजन को ‘लघु’ समझा जाता है। जैसे- कलम; इसमें तीनों वर्ण लघु हैं। इस शब्द का मात्राचिह्न हुआ- ।।।।
(ii) चन्द्रबिन्दुवाले हस्व स्वर भी लघु होते हैं। जैसे- ‘हँ’ ।
गुरु-
(i) आ, ई, ऊ और ऋ इत्यादि दीर्घ स्वर और इनसे युक्त व्यंजन गुरु होते है। जैसे- राजा, दीदी, दादी इत्यादि। इन तीनों शब्दों का मात्राचिह्न हुआ- ऽऽ।
(ii) ए, ऐ, ओ, औ- ये संयुक्त स्वर और इनसे मिले व्यंजन भी गुरु होते हैं। जैसे- ऐसा ओला, औरत, नौका इत्यादि।
(iii) अनुस्वारयुक्त वर्ण गुरु होता है। जैसे- संसार। लेकिन, चन्द्रबिन्दुवाले वर्ण गुरु नहीं होते।
(iv) विसर्गयुक्त वर्ण भी गुरु होता है। जैसे- स्वतः, दुःख; अर्थात- ।ऽ, ऽ ।।
(v) संयुक्त वर्ण के पूर्व का लघु वर्ण गुरु होता है। जैसे- सत्य, भक्त, दुष्ट, धर्म इत्यादि, अर्थात- ऽ।।
(5) गति
छंद के पढ़ने के प्रवाह या लय को गति कहते हैं।
वर्णवृत्तों में इसकी आवश्यकता नहीं है, किन्तु मात्रिक वृतों में इसकी आवश्यकता पड़ती है। ‘जब सकोप लखन वचन बोले’ में ९६ मात्राएँ हैं, लेकिन इसे हम चौपाई का एक चरण नहीं मान सकते, क्योंकि इसमें गति नहीं है। गति ठीक करने के लिए इसे ‘लखन सकोप वचन जब बोले’ करना पड़ेगा।
गति का महत्व वर्णिक छंदों की अपेक्षा मात्रिक छंदों में अधिक है। बात यह है कि वर्णिक छंदों में तो लघु-गुरु का स्थान निश्चित रहता है किन्तु मात्रिक छंदों में लघु-गुरु का स्थान निश्चित नहीं रहता, पूरे चरण की मात्राओं का निर्देश मात्र रहता है।
मात्राओं की संख्या ठीक रहने पर भी चरण की गति (प्रवाह) में बाधा पड़ सकती है।
जैसे-
(1) दिवस का अवसान था समीप में गति नहीं है जबकि ‘दिवस का अवसान समीप था’ में गति है।
(2) चौपाई, अरिल्ल व पद्धरि- इन तीनों छंदों के प्रत्येक चरण में 16 मात्राएं होती है पर गति भेद से ये छंद परस्पर भिन्न हो जाते हैं।
अतएव, मात्रिक छंदों के निर्दोष प्रयोग के लिए गति का परिज्ञान अत्यन्त आवश्यक है।
गति का परिज्ञान भाषा की प्रकृति, नाद के परिज्ञान एवं अभ्यास पर निर्भर करता है।
(6) यति /विराम
छंद में नियमित वर्ण या मात्रा पर साँस लेने के लिए रूकना पड़ता है, इसी रूकने के स्थान को यति या विराम कहते है।
छन्दशास्त्र में ‘यति’ का अर्थ विराम या विश्राम ।
छोटे छंदों में साधारणतः यति चरण के अन्त में होती है; पर बड़े छंदों में एक ही चरण में एक से अधिक यति या विराम होते है।
बड़े छंदों के एक-एक चरण में इतने अधिक वर्ण होते हैं कि लय को ठीक करने तथा उच्चारण की स्पष्टता के लिए कहीं-कहीं रुकना आवश्यक हो जाता है। जैसे- ‘देवघनाक्षरी’ छंद के प्रत्येक चरण में ३३ वर्ण होते हैं और इसमें ८, ८, ८, ९ पर यति होती है। अर्थात आठ, आठ, आठ वर्णों के पश्र्चात तीन बार थोड़ा रुककर उच्चारण करना पड़ता है।
(7) तुक
छंद के चरणों के अंत में समान स्वरयुक्त वर्ण स्थापना को ‘तुक’ कहते हैं।
जैसे- आई, जाई, चक्र-वक्र आदि से चरण समाप्त करने पर कहा जाता है कि कविता तुकांत है।
जिस छंद के अंत में तुक हो उसे तुकान्त छंद और जिसके अन्त में तुक न हो उसे अतुकान्त छंद कहते हैं।
अतुकान्त छंद को अँग्रेजी में ब्लैंक वर्स (Blank Verse) कहते हैं।
छन्द के भेद
वर्ण और मात्रा के विचार से छन्द के चार भेद है-
(1) वर्णिक छन्द
(2) वर्णिक वृत्त
(3) मात्रिक छन्द
(4) मुक्तछन्द
(1) वर्णिक छन्द-
जिन छंदों में वर्णों की संख्या, क्रम, गणविधान तथा लघु-गुरु के आधार पर
पदरचना होती है, उन्हें ‘वर्णिक छंद’ कहते हैं।
दूसरे शब्दों में- केवल वर्णगणना के आधार पर रचा गया छन्द ‘वार्णिक छन्द’ कहलाता है।
सरल शब्दों में- जिस छंद के सभी चरणों में वर्णो की संख्या समान हो। उन्हें ‘वर्णिक छंद’ कहते हैं।
वर्णिक छंद के सभी चरणों में वर्णो की संख्या समान रहती है और लघु-गुरु का क्रम समान रहता है।
‘वृतों’ की तरह इसमें लघु-गुरु का क्रम निश्र्चित नहीं होता, केवल वर्णसंख्या ही निर्धारित रहती है और इसमें चार चरणों का होना भी अनिवार्य नहीं।
वार्णिक छन्द के भेद
वार्णिक छन्द के दो भेद है-
(i) साधारण और
(ii) दण्डक
१ से २६ वर्ण तक के चरण या पाद रखनेवाले वार्णिक छन्द ‘साधारण’ होते है और इससे अधिकवाले दण्डक।
प्रमुख वर्णिक छंद :
प्रमाणिका (8 वर्ण); स्वागता, भुजंगी, शालिनी, इन्द्रवज्रा, दोधक (सभी 11 वर्ण); वंशस्थ, भुजंगप्रयात, द्रुतविलम्बित, तोटक (सभी 12 वर्ण); वसंततिलका (14 वर्ण); मालिनी (15 वर्ण); पंचचामर, चंचला (सभी 16 वर्ण); मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी (सभी 17 वर्ण), शार्दूल विक्रीडित (19 वर्ण), स्त्रग्धरा (21 वर्ण), सवैया (22 से 26 वर्ण), घनाक्षरी (31 वर्ण) रूपघनाक्षरी (32 वर्ण), देवघनाक्षरी (33 वर्ण), कवित्त /मनहरण (31-33 वर्ण)।
दण्डक वार्णिक छन्द ‘घनाक्षरी’ का उदाहरण-
किसको पुकारे यहाँ रोकर अरण्य बीच । -१६ वर्ण
चाहे जो करो शरण्य शरण तिहारे हैं।। – १५ वर्ण
‘देवघनाक्षरी’ का उदाहरण-
झिल्ली झनकारै पिक -८ वर्ण
चातक पुकारैं बन -८ वर्ण
मोरिन गुहारैं उठै -८ वर्ण
जुगनु चमकि चमकि -८ वर्ण
कुल- ३३ वर्ण
‘रूपघनाक्षरी’ का उदाहरण
ब्रज की कुमारिका वे -८ वर्ण
लीनें सक सारिका ब -८ वर्ण
ढावैं कोक करिकानी -८ वर्ण
केसव सब निबाहि -८ वर्ण
कुल- ३२ वर्ण
साधारण वार्णिक छन्द (२६ वर्ण तक का छन्द) में ‘अमिताक्षर’ छन्द को उदाहरणस्वरूप लिया जा सकता है। अमिताक्षर वस्तुतः घनाक्षरी के एक चरण के उत्तरांश से निर्मित छन्द है, अतः इसमें ९५ वर्ण होते है और ८ वें तथा ७ वें वर्ण पर यति होती है। जैसे-
चाहे जो करो शरण्य -८ वर्ण
शरण तिहारे है -७ वर्ण
कुल-९५ वर्ण
वर्णिक छंद का एक उदाहरण : मालिनी (15 वर्ण)
वर्णो की संख्या-15, यति 8 और 7 पर
परिभाषा-
न……….न………..म………..य………..य ….. मिले तो मालिनी होवे
।………..।……….. ।………..।……….. ।
नगन……नगन……मगन…..यगण……..यगण
।।।…….।।।……….ऽऽऽ…….।ऽऽ…….।ऽऽ
3……..3…………3…………3………3 =15 वर्ण
प्रथम चरण- प्रिय पति वह मेरा प्राण प्यारा कहाँ है ?
द्वितीय चरण- दुःख-जलनिधि-डूबी का सहारा कहाँ है ?
तृतीय चरण- लख मुख जिसका मैं आज लौं जी सकी हूँ,
चतुर्थ चरण- वह हृदय हमारा नैन-तारा कहाँ है ? (हरिऔध)
(2) वार्णिक वृत्त-
वृत्त उस समछन्द को कहते है, जिसमें चार समान चरण होते है और प्रत्येक चरण में आनेवाले वर्णों का लघु-गुरु-क्रम सुनिश्र्चित रहता है। गणों में वर्णों का बँधा होना प्रमुख लक्षण होने के कारण इसे वार्णिक वृत्त, गणबद्ध या गणात्मक छन्द भी कहते हैं। ७ भगण और २ गुरु का ‘मत्तगयन्द सवैया’ इसके उदाहरणस्वरूप है-
भगण भगण भगण भगण
ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ।।
या लकुटी अरु कामरि या पर
भगण भगण भगण गग
ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽऽ
राज तिहूँ पुर को तजि डारौं : – कुल ७ भगण +२ गुरु=२३ वर्ण
‘द्रुतविलम्बित’ और ‘मालिनी’ आदि गणबद्ध छन्द ‘वार्णिक वृत्त’ है।
(3) मात्रिक छन्द-
जिन छंदों में मात्राओं की संख्या, लघु-गुरु, यति-गति के आधार पर पदरचना होती है, उन्हें मात्रिक छन्द कहते हैं।
दूसरे शब्दों में- मात्रा की गणना पर आधृत छन्द ‘मात्रिक छन्द’ कहलाता है।
मात्रिक छंद के सभी चरणों में मात्राओं की संख्या तो समान रहती है लेकिन लघु-गुरु के क्रम पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
इसमें वार्णिक छन्द के विपरीत, वर्णों की संख्या भित्र हो सकती है और वार्णिक वृत्त के अनुसार यह गणबद्ध भी नहीं है, बल्कि यह गणपद्धति या वर्णसंख्या को छोड़कर केवल चरण की कुल मात्रासंख्या के आधार ही पर नियमित है। ‘दोहा’ और ‘चौपाई’ आदि छन्द ‘मात्रिक छन्द’ में गिने जाते है। ‘दोहा’ के प्रथम-तृतीय चरण में ९३ मात्राएँ और द्वितीय-चतुर्थ में ९९ मात्राएँ होती है। जैसे-
प्रथम चरण- श्री गुरु चरण सरोज रज – १३ मात्राएँ
द्वितीय चरण- निज मन मुकुर सुधार- ११ मात्राएँ
तृतीय चरण- बरनौं रघुबर विमल जस- १३ मात्राएँ
चतुर्थ चरण- जो दायक फल चार- ११ मात्राएँ
उपयुक्त दोहे के प्रथम चरण में ११ वर्ण और तृतीय चरण में १२ वर्ण है जबकि कुल मात्राएँ गिनने पर १३-१३ मात्राएँ ही दोनों चरणों में होती है। गण देखने पर पहले चरण में भगण, नगन, जगण और दो लघु तथा तीसरे चरण में सगण , नगण, नगण, नगण है। अतः ‘मात्रिक छन्द’ के चरणों में मात्रा का ही साम्य होता है, न कि वर्णों या गणों का।
प्रमुख मात्रिक छंद
(A) सम मात्रिक छंद :
अहीर (11 मात्रा), तोमर (12 मात्रा), मानव (14 मात्रा); अरिल्ल, पद्धरि/पद्धटिका,चौपाई (सभी 16 मात्रा); पीयूषवर्ष, सुमेरु (दोनों 19 मात्रा), राधिका (22 मात्रा), रोला, दिक्पाल, रूपमाला (सभी 24 मात्रा), गीतिका (26 मात्रा), सरसी (27 मात्रा), सार (28 मात्रा), हरिगीतिका (28 मात्रा), ताटंक (30 मात्रा), वीर या आल्हा (31 मात्रा) ।
(B) अर्द्धसम मात्रिक छंद :
बरवै (विषम चरण में- 12 मात्रा, सम चरण में- 7 मात्रा), दोहा (विषम- 13, सम- 11), सोरठा (दोहा का उल्टा), उल्लाला (विषम-15, सम-13)।
(C) विषम मात्रिक छंद :
कुण्डलिया (दोहा +रोला), छप्पय (रोला +उल्लाला)।
(4) मुक्तछन्द-
जिस समय छंद में वर्णिक या मात्रिक प्रतिबंध न हो, न प्रत्येक चरण में वर्णो की संख्या और क्रम समान हो और मात्राओं की कोई निश्चित व्यवस्था हो तथा जिसमें नाद और ताल के आधार पर पंक्तियों में लय लाकर उन्हें गतिशील करने का आग्रह हो, वह मुक्त छंद है।
उदाहरण- निराला की कविता ‘जूही की कली’ इत्यादि।
चरणों की अनियमित, असमान, स्वच्छन्द गति और भावानुकूल यतिविधान ही मुक्तछन्द की विशेषता है। इसका कोई नियम नहीं है। यह एक प्रकार का लयात्मक काव्य है, जिसमें पद्य का प्रवाह अपेक्षित है। निराला से लेकर ‘नयी कविता’ तक हिन्दी कविता में इसका अत्यधिक प्रयोग हुआ है।
इसमें न तो वर्णों की गणना होती है, न मात्राओं की। भाव-प्रवाह के आधार पर पदरचना होती है।
प्रमुख वर्णिक छंद
(1) इंद्रवज्रा
(2) उपेन्द्रवज्रा
(3) तोटक
(4) वंशस्थ
(5) द्रुतविलंबित
(6) भुजंगप्रयात
(7) वसंततिलका
(8) मालिनी
(9) मंदाक्रांता
(10) शिखरिणी
(11) शार्दूलविक्रीडित
(12) सवैया
(13) कवित्त
(1) इंद्रवज्रा-
प्रत्येक चरण में ११ वर्ण होते हैं। इनका क्रम है- तगण, नगण, जगण तथा अंत में दो गुरु (ऽऽ ।, । । ।, । ऽ।, ऽऽ) । यथा-
तूही बसा है मन में हमारे।
तू ही रमा है इस विश्र्व में भी।।
तेरी छटा है मनमुग्धकारी।
पापापहारी भवतापहारी।।
(2) उपेन्द्रवज्रा-
प्रत्येक चरण में ११ वर्ण होते हैं। क्रम इस प्रकार है- जगण, तगण, जगण और अंत में दो गुरु (। ऽ।, ऽऽ ।, । ऽ।, ऽऽ) । यथा-
बड़ा कि छोटा कुछ काम कीजै।
परन्तु पूर्वापर सोच लीजै।।
बिना विचारे यदि काम होगा।।
कभी न अच्छा परिणाम होगा।।
(3) तोटक-
प्रत्येक चरण में चार सगण ( । । ऽ) अर्थात १२ वर्ण होते हैं। यथा –
जय राम सदा सुखधाम हरे।
रघुनायक सायक-चाप धरे।।
भवबारन दारन सिंह प्रभो।
गुणसागर नागर नाथ विभो।।
(4) वंशस्थ-
प्रत्येक चरण में १२ वर्ण होते हैं। क्रम इस प्रकार है- जगण, तगण, जगण और रगण (। ऽ।, ऽऽ ।, । ऽ।, ऽ। ऽ) । यथा-
जहाँ लगा जो जिस कार्य बीच था।
उसे वहाँ ही वह छोड़ दौड़ता।।
समीप आया रथ के प्रमत्त सा।
विलोकन को घनश्याम माधुरी।।
(5) द्रुतविलम्बित-
इस वार्णिक समवृत्त छन्द के प्रत्येक चरण में नगण, भगण, भगण, रगण के क्रम में कुल १२ वर्ण होते हैं। उदाहरण-
न जिसमें कुछ पौरुष हो यहाँ,
सफलता वह पा सकता कहाँ ?
(6) भुजंगप्रयात-
इसके प्रत्येक चरण में १२ वर्ण होते हैं। इसमें चार यगण होते हैं। यथा-
अरी व्यर्थ है व्यंजनों की बड़ाई।
हटा थाल तू क्यों इसे साथ लाई।।
वही पार है जो बिना भूख भावै।
बता किंतु तू ही उसे कौन खावै।।
(7) वसंततिलका-
इसके प्रत्येक चरण में १४ वर्ण होते हैं। क्रम इस प्रकार है- तगण, भगण, जगण, और अंत में दो गुरु। यथा-
रे क्रोध जो सतत अग्नि बिना जलावे।
भस्मावशेष नर के तन को बनावे।।
ऐसा न और तुझ-सा जग बीच पाया।
हारे विलोक हम किंतु न दृष्टि आया।
(8) मालिनी-
इस वार्णिक समवृत्त छन्द के प्रत्येक चरण में नगण, नगण, भगण, यगण, यगण के क्रम से कुल ९५ वर्ण होते है तथा ७-८ वर्णों पर यति होती है उदाहरणार्थ-
पल-पल जिसके मैं पन्थ को देखती थी,
निशिदिन जिसके ही ध्यान में थी बिताती।
(9) मन्दाक्रान्ता-
इस वार्णिक समवृत्त छन्द के प्रत्येक चरण में मगण, भगण, नगण, तगण, तगण और दो गुरु के क्रम से १७ वर्ण होते है यति ४, ६, ७ वर्णों पर पड़ती है। महाकवि कालिदास के ‘मेघदूत’ में यही छंद है। यथा-
तारे डूबे, तम टल गया, छा गई व्योम-लाली।
पक्षी बोले, तमचर, जगे, ज्योति फैली दिशा में।।
शाखा डोली तरु निचय की, कंज फूले सरों के।
धीरे-धीरे दिनकर कढ़े, तामसी रात बीती।।
(10) शिखरिणी-
इसके प्रत्येक चरण में १७ वर्ण होते हैं। क्रम इस प्रकार है- यगण, मगण, नगण, सगण, भगण और अंत में लघु-गुरु। यति ६, ११ वर्णो पर होती है। महाकवि भवभूति का यह बहुत प्रिय छंद है। यथा-
मनोभावों के हैं शतदल जहाँ शोभित सदा।
कलाहंस श्रेणी सरस रस-क्रीड़ा-निरत है।।
जहाँ हत्तंत्री की स्वरलहरिका नित्य उठती।
पधारो हे वाणी, बनकर वहाँ मानसप्रिया।।
(11) शार्दूलविक्रीडित-
इसके प्रत्येक चरण में ११ वर्ण होते हैं। क्रम इस प्रकार है- मगण, सगण, जगण, सगण, तगण, तगण, और अंत में गुरु। यति १२, ७ वर्णों पर होती है। यथा-
सायंकाल हवा समुद्र-तट की आरोग्यकारी यहाँ।
प्रायः शिक्षित सभ्य लोग नित ही जाते इसी से वहाँ।।
बैठे हास्य-विनोद-मोद करते सानंद वे दो घड़ी।
सो शोभा उस दृश्य की ह्रदय को है तृप्ति देती बड़ी।।
(12) सवैया-
जिन छंदों के प्रत्येक चरण में २२ से २६ वर्ण होते है, उन्हें ‘सवैया’ कहते हैं। यह बड़ा ही मधुर एवं मोहक छंद है। इसका प्रयोग तुलसी, रसखान, मतिराम, भूषण, देव, घनानंद तथा भारतेंदु जैसे कवियों ने किया है। इसके अनेक प्रकार और अनेक नाम हैं; जैसे- मत्तगयंद, दुर्मिल, किरीट, मदिरा, सुंदरी, चकोर आदि।
किरीट सवैया का एक उदाहरण लें, जिसके प्रत्येक चरण में आठ भगण (ऽ।।) अर्थात १४ वर्ण होते हैं और १२-१२ वर्णों पर यति होती है-
मानुष हों तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हों तो कहा बसु मेरो चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।।
पाहन हों तो वही गिरि को जो धरयौ करछत्र पुरंदर धारन।
जौ खग हों तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन।।
द्रष्टव्य- भगण के कारण काले अक्षरों को हस्व या लघु की तरह पढ़ा जाएगा। ब्रजभाषा आदि में ऐसी अवस्था में गुरु को लघु पढ़ने की परंपरा है।
(13) कवित्त-
यह वर्णिक छंद है। इसमें गणविधान नहीं होता, इसलिए इसे ‘मुक्त वर्णिक छंद’ भी कहते हैं। कवित्त के प्रत्येक चरण में ३१ से ३३ वर्ण होते हैं। इसके अनेक भेद हैं जिन्हें मनहरण, रूपघनाक्षरी, देवघनाक्षरी आदि नाम से पुकारते हैं।
मनहरण कवित्त का एक उदाहरण लें। इसके प्रत्येक चरण में ३१ वर्ण होते हैं। अंत में गुरु होता है। १६, १५ वर्णो पर यति होती है। यथा-
इंद्र जिमि जंभ पर बाडव सुअंभ पर,
रावण सदंभ पर रघुकुलराज हैं।
पौन वारिवाह पर संभु रतिनाह पर,
ज्यों सहस्त्रबाहु पर राम द्विजराज हैं।
दावा द्रुमदंड पर चीता मृगझुंड पर,
भूषण वितुंड पर जैसे मृगराज हैं।
तेज तम-अंस पर कान्ह जिमि कंस पर,
प्रमुख मात्रिक छन्द
(1) चौपाई-
यह मात्रिक सम छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ होती है। चरण के अन्त में जगण (।ऽ।) और तगण (ऽऽ।) का आना वर्जित है। तुक पहले चरण की दूसरे से और तीसरे की चौथे से मिलती है। यति प्रत्येक चरण के अन्त में होती है। उदाहरणार्थ-
नित नूतन मंगल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं।।
बड़े भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुनगन गावन लागे ।।
गुरु पद रज मृदु मंजुल मंजन। नयन अमिय दृग दोष विभंजन।।
तेहि करि विमल विवेक विलोचन। बरनउँ रामचरित भवमोचन ।।
(2) रोला-
यह मात्रिक सम छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती हैं। इसके प्रत्येक चरण में ११ और १३ मात्राओं पर यति ही अधिक प्रचलित है। प्रत्येक चरण के अन्त में दो गुरु या दो लघु वर्ण होते हैं। दो-दो चरणों में तुक आवश्यक है। उदाहरणार्थ-
जो जगहित पर प्राण निछावर है कर पाता।
जिसका तन है किसी लोकहित में लग जाता ।।
(3) हरिगीतिका-
यह मात्रिक सम छन्द है। इस छन्द के प्रत्येक चरण में २८ मात्राएँ होती हैं। १६ और १२ मात्राओं पर यति तथा अन्त में लघु-गुरु का प्रयोग ही अधिक प्रचलित है। उदाहरणार्थ-
कहती हुई यों उत्तरा के नेत्र जल से भर गए।
हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए ।।
(4) बरवै-
यह मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। इस छन्द के विषम चरणों (प्रथम और तृतीय) में १२ और सम चरणों (दूसरे और चौथे) में ७ मात्राएँ होती है। सम चरणों के अन्त में जगण या तगण आने से इस छन्द में मिठास बढ़ती है। यति प्रत्येक चरण के अन्त में होती है। जैसे-
वाम अंग शिव शोभित, शिवा उदार।
सरद सुवारिद में जनु, तड़ित बिहार ।।
(5) दोहा-
यह मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। इस छन्द के विषम चरणों (प्रथम और तृतीय) में १३ मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय और चतुर्थ) में ११ मात्राएँ होती है। यति चरण के अन्त में होती है। विषम चरणों के आदि में जगण नहीं होना चाहिए। सम चरणों के अन्त में लघु होना चाहिए। तुक सम चरणों में होनी चाहिए। जैसे-
श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार।
बरनौ रघुवर विमल जस, जो दायक फल चार ।।
(6) सोरठा-
यह मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। यह दोहे का उल्टा, अर्थात दोहे के द्वितीय चरण को प्रथम और प्रथम को द्वितीय तथा तृतीय को चतुर्थ और चतुर्थ को तृतीय कर देने से बन जाता है। इस छन्द के विषम चरणों में ११ मात्राएँ और सम चरणों में १३ मात्राएँ होती है। तुक प्रथम और तृतीय चरणों में होती है। उदाहरणार्थ-
निज मन मुकुर सुधार, श्री गुरु चरण सरोज रज।
जो दायक फल चार, बरनौ रघुबर विमल जस ।।
त्यों मलेच्छ-बंस पर सेर सिवराज हैं।।
(7) वीर-
इसके प्रत्येक चरण में ३१ मात्राएँ होती हैं। १६, १५ पर यति पड़ती है। अंत में गुरु-लघु का विधान है। ‘वीर’ को ही ‘आल्हा’ कहते हैं।
सुमिरि भवानी जगदंबा को, श्री शारद के चरन मनाय।
आदि सरस्वती तुमको ध्यावौं, माता कंठ विराजौ आय।।
ज्योति बखानौं जगदंबा कै, जिनकी कला बरनि ना जाय।
शरच्चंद्र सम आनन राजै, अति छबि अंग-अंग रहि जाय।।
(8) उल्लाला-
इसके पहले और तीसरे चरणों में १५-१५ तथा दूसरे और चौथे चरणों में १३-१३ मात्राएँ होती हैं। यथा-
हे शरणदायिनी देवि तू, करती सबका त्राण है।
हे मातृभूमि ! संतान हम, तू जननी, तू प्राण है।।
(9) कुंडलिया-
यह ‘संयुक्तमात्रिक छंद’ है। इसका निर्माण दो मात्रिक छंदों-दोहा और रोला-के योग से होता है। पहले एक दोहा रख लें और उसके बाद दोहा के चौथे चरण से आरंभ कर यदि एक रोला रख दिया जाए तो वही कुंडलिया छंद बन जाता है। जिस शब्द से कुंडलिया प्रारंभ हो, समाप्ति में भी वही शब्द रहना चाहिए- यह नियम है, किंतु इधर इस नियम का पालन कुछ लोग छोड़ चुके हैं। दोहा के प्रथम और द्वितीय चरणों में (१३ + ११) १४ मात्राएँ होती हैं तथा द्वितीय और चतुर्थ चरणों (१३ + ११) में भी १४ मात्राएँ होती हैं। इस प्रकार दोहे के चार चरण कुंडलिया के दो चरण बन जाते हैं। रोला सममात्रिक छंद हैं जिसके प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती हैं। प्रारंभ के दो चरणों में १३ और ११ मात्राएँ पर यति होती है तथा अंत के चार चरणों में ११ और १३ मात्राओं पर।
हिन्दी में गिरिधर कविराय कुंडलियों के लिए विशेष प्रसिद्ध हैं। वैसे तुलसी, केशव आदि ने भी कुछ कुंडलियाँ लिखी हैं। उदाहरण देखें-
दौलत पाय न कीजिए, सपने में अभिमान।
चंचल जल दिन चारि कौ, ठाउँ न रहत निदान।।
ठाउँ न रहत निदान, जियन जग में जस लीजै।
मीठे बचन सुनाय, विनय सबही की कीजै।।
कह गिरिधर कविराय, अरे यह सब घर तौलत।
पाहुन निसिदिन चारि, रहत सब ही के दौलत।।
(10) छप्पय-
यह संयुक्तमात्रिक छंद है। इसका निर्माण मात्रिक छंदों- रोला और उल्लाला- के योग से होता है। पहले रोला को रख लें जिसके प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होंगी। इसके बाद एक उल्लाला को रखें। उल्लाला के प्रथम तथा द्वितीय चरणों में (१५ + १३) १८ मात्राएँ होंगी तथा तृतीय और चतुर्थ चरणों में भी (१५ + १३) २८ मात्राएँ होंगी। रोला के चार चरण तथा उल्लाला के चार चरण- जो यहाँ दो चरण हो गये हैं- मिलकर छप्पय के छह चरण अर्थात छह पाद या पाँव हो जाएँगे। प्रथम चार चरणों में ११, १३ तथा अंत के दो चरणों में १४, १३ मात्राओं पर यति होगी।
जिस प्रकार तुलसी की चौपाइयाँ, बिहारी के दोहे, रसखान के सवैये, पद्माकर के कवित्त तथा गिरिधर कविराय की कुंडलिया प्रसिद्ध हैं; उसी प्रकार नाभादास के छप्पय प्रसिद्ध हैं। उदाहरण के लिए मैथलीशरण गुप्त का एक छप्पय देखें-
जिसकी रज में लोट-पोट कर बड़े हुए हैं।
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुए हैं।।
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये।
जिसके कारण धूल-भरे हीरे कहलाये।।
हम खेले कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि ! तुमको निरख मग्न क्यों न हों मोद में।।
मुक्तछंद
मुक्तछंद में न तो वर्णों का बंधन होता है और न मात्राओं का ही। कवि का भावोच्छ्वास काव्य की एक पूर्ण इकाई में व्यक्त हो जाता है। मुक्तछंद पर्वत के अंतस्तल से फूटता स्रोत है, जो अपने लिए मार्ग बना लेता है। मुक्त छंद के लिए बने-बनाये ढाँचे अनुपयुक्त होते हैं। उदाहरण के लिए एक मुक्तछंद देखें-
चितकबरे चाँद को छेड़ो मत
शकुंतला-लालित-मृगछौना-सा अलबेला है।
प्रणय के प्रथम चुंबन-सा
लुके-छिपे फेंके इशारे-सा कितना भोला है।
टाँग रहा किरणों के झालर शयनकक्ष में चौबारा
ओ मत्सरी, विद्वेषी ! द्वेषानल में जलना अशोभन है।
दक्षिण हस्त से यदि रहोगे कार्यरत
तो पहनायेगा चाँद कभी न कभी जयमाला।