Purpose of Education Essay in Hindi

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Purpose of Education Essay in Hindi

शिक्षा का उद्देश्य पर निबंध
रूपरेखा : प्रस्तावना – शिक्षा क्या है – ज्ञान और संस्कृति – चरित्र-निर्माण – व्यवसाय और रोजगार – जीने की कला सीखना – व्यक्तित्व विकास – उपसंहार।

हमारे जीवन में शिक्षा का एक अहम योगदान है। जब से मानव सभ्यता का विकास हुआ है तभी से भारत अपनी शिक्षा के लिए प्रसिद्द है। भारतीय संस्कृत ने विश्व का सदैव पथ-प्रदर्शन किया और आज भी समाज में जीवित है। शिक्षा हम सभी के उज्ज्वल भविष्य के लिए आवश्यक और एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। मनुष्य जन्म से ही सुख और शांति जीवन जीने का प्रयास करता है। किसी भी व्यक्ति की उन्नति और विकास के लिए उचित शिक्षा मिलना आवश्यक है। क्योंकि शिक्षा के बिना उज्जवल भविष्य संभव नहीं है। वर्तमान समय में भी महान दार्शनिक एवं शिक्षा शास्त्री इस बात का प्रयास कर रहे हैं की शिक्षा भारत में हर युग में शिक्षा का उद्देश्य अलग-अलग रहा है।

‘शिक्षा’ शब्द ‘शिक्ष्’ मूल से भाव में ‘ अ’ तथा “टाप्’ प्रत्यय जोड़ने पर बनता है। इसका अर्थ है- सीखना, जानना, अध्ययन तथा ज्ञानाभिग्रहण। शिक्षा क लिए वर्तमान युग में शिक्षण, ज्ञान, विद्या, एजूकेशन (Education) आदि अनेक ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है। एजूकेशन (Education) शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के “Educare” शब्द से मानी जाती है। “Educare” शब्द का अर्थ है, “To educate, to Bring up, to raise” अर्थात् शिक्षित करना पालन-पोषण करना तथा जीवन में हमेशा आगे बढ़ना। शिक्षा हमारे मानसिक तथा नैतिक विकास के साथ ही हमारे कौशल और व्यापारी विकास पर केन्द्रित होती है। शिक्षा हमारे समाज में पीढ़ी दर पीढ़ी अपने ज्ञान और समझ को हस्तांतरण का सफल प्रयास है। शिक्षा-शास्त्री के विद्वानो का विचार है, शिक्षा विकास का वह क्रम है, जिससे व्यक्ति अपने को धीरे-धीरे विभिन्न प्रकार से अपने भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक वातावरण में खुद को अनुकूल बना लेता है। जीवन ही वास्तव में शिक्षा है। प्रोफेसर ड्यूबी के मत में, ‘शिक्षा एक प्रक्रिया है जिसमें बालक के ज्ञान, चरित्र तथा व्यवहार को एक विशेष साँचे में ढाला जाता है।

ज्ञान क्या है ? किसी बात या विषय के सम्बन्ध में होने वाली यह तथ्यपूर्ण, वास्तविक
और संगत जानकारी या परिचय जो अध्ययन, अनुभव, निरीक्षण या प्रयोग आदि के द्वारा प्राप्त होता है, ज्ञान कहलाता है। ज्ञान अनुभव की पुत्री है। दूसरे शब्दों में मनुष्य के संचित अनुभवों का कोश हो वह ज्ञान है। स्वामी शिवानन्द का मत है कि, ‘सत्य का साक्षात्कार’ ही ज्ञान है। सुकरात ने ज्ञान को शक्ति माना है। बेकन ने इसी बात का समर्थन करते हुए कहा है, “Knowledge Itself is Power”(ज्ञान स्वयं ही शक्ति है।) डिजराइली का कथन है, ‘अपनी अनभिज्ञता का बोध, ज्ञान की ओर एक बड़ा कदम है।’

ज्ञान जीवन के लिए उपयोगी तभी है, जब उसका प्रयोग किया जाए। विचारों को
कार्यान्वित किया जाए, जिससे चिन्तन- प्रक्रिया एवं मानव-व्यवहार में परिवर्तन आए।
ज्ञान प्राप्ति शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। आधुनिक सभ्यता शिक्षा के माध्यम द्वारा
ज्ञान-प्राप्त करके विकसित हुई है। न तो ज्ञान अपने आप में सम्पूर्ण शिक्षा है, न ही शिक्षा का अंतिम उद्देश्य। यह तो शिक्षा का मात्र एक भाग है, और एक साधन है।
अत: शिक्षा का उद्देश्य सांस्कृतिक ज्ञान की प्राप्ति होना चाहिए ताकि मानव सभ्य,
शिष्ट, संयत बने। साहित्य, संगीत और कला आदि का विकास कर सके। जीवन को
मूल्यवानू बनाकर जीवन-स्तर को ऊँचा उठा सके। साथ ही आने वाली पीढ़ी को सांस्कृतिक धरोहर सौंप सके।

चरित्र मनुष्य की पहचान है | चैनिंग के शब्दों में, ‘व्यक्तिगत चरित्र समाज की महान आशा है। ‘प्रेमचन्द जी के शब्दों में, ‘गौरव-संपन्न प्राणियों के लिए अपना चरित्र-बल
ही सर्वप्रधान है। हरबर्ट के अनुसार, ‘न केवल शिक्षा, अपितु चरित्र मानव की रक्षा करता है। उच्च चरित्र एक धन है । ‘पंडित नेहरू के अनुसार, ‘सहनशीलता एवं नैतिकता के बिना भौतिक धन बेकार है।’ चरित्र दो प्रकार का होता है, अच्छा और बुरा। सच्चरित्र ही समाज की शोभा है। निर्धन का धन है। जीवन-विकास का मूल है। जीवन जन्मजात नहीं होता, बनाया जाता है। इसके निर्माण का दायित्व शिक्षा वहन करती है। गाँधी जी के शब्दों में ‘चरित्र शुद्धि ठोस शिक्षा की बुनियाद है।’ शिक्षा का उद्देश्य सांवेगिक एवं नैतिक विकास होना चाहिए। एक अच्छा इंजीनियर या डॉक्टर बेकार है, यदि उनमें नैतिकता के गुण नहीं है। कारण, चरित्र हीन ज्ञानी सिर्फ ज्ञान का भार ढोता है। वास्तविक शिक्षा मानव में निहित सदगुण एवं पूर्णत्व का विकास करती है। सच्चाई तो यह है कि चारित्रिक विकास में ही शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य निहित हैं।
यदि शिक्षा मानवीय चरित्र का विकास करने में असफल रहतो है, तो उसका उद्देश्य पूरा नहीं होता।

व्यवसाय का अर्थ है जीविका निर्वाह का साधन। इसका अर्थ यह है कि शिक्षा
में इतनी शक्ति होनी चाहिए कि वह ‘अर्थकरी’ हो अर्थात शिक्षित व्यक्ति की रोजी-रोटी
की गारण्टो ले सके। गाँधी जी के शब्दों में, ‘सच्ची शिक्षा बेरोजगारी के विरुद्ध बीमे के
रूप में होनी चाहिए।’ स्वतंत्रता-पूर्व शिक्षा का उद्देश्य नौकरी पाना था। उस समय भारत की आबादी कम थी और शिक्षित व्यक्ति को प्राय: नौकर मिल जाती थी।
देश आजाद हुआ। जनसंख्या सुरसा के मुँह की तरह बढ़ने लगी और नौकरियाँ उसके अनुपात में चींटी की चाल से बढ़ी। परिणामत: देश में शिक्षित बेरोजगारों की लंबी लाइन लग गईं | तब व्यवसाय का दूसरा अर्थ लिया गया – ‘काम धंधा।’ इसका अर्थ है, सामान्य शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक जीवन के लिए उपयोगी विधाओं, शिल्पों एवं व्यवसायों का ज्ञान प्राप्त करना।
श्रम का प्रेमी अपनी जीविका कमा ही लेगा। इसलिए “व्यवसाय के लिए शिक्षा’ शिक्षा का ध्येय होना अनिवार्य है। शिक्षा के ऊपर लिखे चारों उद्देश्य-ज्ञान प्राप्ति, संस्कृति, चरित्र तृथा व्यवसाय के लिए एकांगी हैं, स्वत: सम्पूर्ण नहीं। शिक्षा जीवन की जटिल प्रक्रिया और दुःख, कष्ट, विपत्ति में जीवन को सुंखमय बनाने की क्षमता और योग्यता प्रदान करे। व्यवसाय के लिए ‘शिक्षा’ या ‘ व्यावसायिक शिक्षा’ का लक्ष्य कुशल शिल्पी तैयार करना नहीं, विद्यार्थी में उद्योग- धन्धों के प्रति प्रेम और उनकी ओर झुकाव उत्पन्न करके शारीरिक श्रम के महान की अनुभूति कराना है।

शिक्षा में एक व्यापक उद्देश्य अर्थात्‌ सम्पूर्ण जीवन के सभी पक्ष में सम्पूर्ण
विकास का समर्थन करता है। वह पुस्तकालीयता का खंडन करता है तथा परिवार चलाने, सामाजिक, आर्थिक, सम्बन्धों को चलाने तथा भावनात्मक विकास करने वाली क्रियाओं का समर्थन करता है। इन क्रियाओं में सफलता के पश्चात व्यक्ति आगामी जीवन के लिए तैयार हो जाता है। डॉ. डी.एन. खोसला के अनुसार, समस्त शिक्षा कार्य से आरम्भ होनी चाहिए और वहीं समाप्त होनी चाहिए। शिक्षा ही पूजा है और व्यक्ति को इस पूजा के लिए तैयार होना चाहिए। जीवन एक कला है, जो शिक्षा सिखाती है।

किसी व्यक्ति की निजी विशिष्ट क्षमताएं, गृण, प्रवृत्तियाँ आदि जो उसके उद्देश्यों,
कार्यो, व्यवहारों आदि में प्रकट होती हैं और जिनसे उस व्यक्ति का सामाजिक स्वरूप स्थिर होता है, व्यक्तित्व है | व्यक्तित्व दो भाग में विभक्‍त है आन्तर और बाह्य
आन्तर व्यक्तित्व मूलत: नैसर्गिक या प्राकृतिक होता है और आध्यात्मिक, दैविक तथा दैहिक शक्तियों का सम्मिलित रूप होता है। वह मनुष्य के अन्दर रहने वाली समस्त प्रकट तथा प्रच्छनन प्रवृत्तियों और शक्तियों का प्रतीक होता है। बाद्य व्यक्तित्व इसी का प्रत्याभास मात्र होता है। फिर भी, लोक के लिए वही गोचर या दृश्य होता है । इससे यह सूचित होता है कि कोई व्यक्ति अपनी आंतरिक प्रवृत्तियों और शक्तियों को कहाँ तक कार्यान्वित तथा विकसित करने में समर्थ है या हो सका है।

शिक्षा व्यक्तित्व के विकास के लिए भी है और जीवकोपार्जन के लिए भी है। अत: उसका उद्देश्य दोहग(दुगनी) हो जाता है। स्वतंत्र भारत का उत्तरदायिन्वपूर्ण नागरिक होने के लिए विद्यार्थी वर्ग को चरित्र की आवश्यकता थी, जो व्यक्तित्व विकास में ही सम्भव थी । जीवकोपार्जन की क्षमता सबका सामाजिक प्राप्य थी। बाह्य लक्ष्यों को उपेक्षा कर देने से शिक्षा एक प्रकार से समय बिताने का साधन हो गई। शिक्षा हम सभी के उज्ज्वल भविष्य के लिए आवश्यक और एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। मनुष्य जन्म से ही सुख और शांति जीवन जीने का प्रयास करता है। किसी भी व्यक्ति की उन्नति और विकास के लिए उचित शिक्षा मिलना आवश्यक है। क्योंकि शिक्षा के बिना उज्जवल भविष्य संभव नहीं है।

 

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