Vocational Education Essay in Hindi

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Vocational Education Essay in Hindi

व्यावसायिक शिक्षा पर निबंध
रूपरेखा : प्रस्तावना – व्यावसायिक शिक्षा का अर्थ – शिक्षा और व्यवसाय जीवन के दो पहिए – सफल बनना – व्यावसायिक शिक्षा की समस्या – व्यावसायिक शिक्षा की समस्याओं का समाधान – व्यावसायिक शिक्षा का महत्व – व्यावसायिक शिक्षा का उद्देश्य – व्यावसायिक शिक्षा की विशेषता – शिक्षा को व्यवसाय परक और व्यावहारिक बनाना – उपसंहार।

व्यावसायिक शिक्षा (अंग्रेजी में Vocational Education) में छात्रों को व्यापार के आधारभूत सिद्धान्तों तथा प्रक्रियाओं का शिक्षण किया जाता है। किसी देश के विकास में उस देश की शैक्षिक व्यवस्था का बहुत अत्यधिक महत्व होता हैं। तथा ऐसी शिक्षा एवं प्रशिक्षण से तात्पर्य है जो कार्यकर्ता को अपने कार्य मैंने निपुण बनाती है उदाहरण के लिए आईटीआई एवं पॉलिटेक्निक में दी जाने वाली शिक्षा है। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य छात्रों को व्यवसाय दिलाना और उनको जीविकोपार्जन योग्य बनाना हो तो उस देश का विकास निश्चित होता हैं। शिक्षा अपने वास्तविक उद्देश्यों और लक्ष्यों की प्राप्ति तभी कर सकती हैं जब वह शिक्षा व्यावसायिक शिक्षा हो।

व्यावसायिक शिक्षा को अंग्रेजी में Vocational Education कहते हैं। शिक्षा को व्यवसाय के साथ जोड़ना ही व्यवसायिक शिक्षा कहलाती हैं। यह शिक्षा आधुनिक युग की नई मांग हैं। ‘व्यावसायिक-शिक्षा ‘ अथवा ‘शिक्षा का व्यवसायीकरण’ का अर्थ क्या है ? सामान्य शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक – आर्थिक जीवन के लिए उपयोगी शिल्पों, एवं व्यवसाय का ज्ञान प्राप्त करना ‘शिक्षा का व्यवसायीकरण’ है।

व्यावसायिक शिक्षा के महत्व को ध्यान में रखते हुए इसे राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना 2005 (NCF 2005) में भी सम्मिलित किया गया हैं। वर्तमान में उसी शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का स्थान दिया जाता हैं जो छात्रों को जीविकोपार्जन करने योग्य बनाए। शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक शिक्षा को जोड़ने का प्रथम प्रयास कोठारी आयोग 1964 ने किया। इस आयोग ने सरकार को माध्यमिक शिक्षा के व्यवसायिकरण का सुझाव दिया। व्यावसायिक शिक्षा छात्रों को व्यवसाय चुनने एवं व्यवसाय संबंधित योग्यता प्राप्त कराने का अवसर प्रदान करती हैं।

शिक्षा और व्यवसाय जीविका रूपी रथ के दो पहिए हैं । शिक्षा के बिना जीविको पार्जन संभव नहीं, व्यवसाय बिना शिक्षा व्यर्थ है। अत: शिक्षा और व्यवसाय एक-दूसरे के पूरक हैं मानवीय प्रगति के सम्बल हैं, राष्ट्रीय विकास के उपकरण हैं, आर्थिक उन्‍नति के परिचायक हैं। प्राचीन युग में शिक्षा ग्रहण करने का उद्देश्य ज्ञानाजन करना था। इसलिए सिद्धान्त वाक्य बना ‘ज्ञान तृतीय॑ मनुजस्थ नेत्रम्‌ (ज्ञान मनुष्य का तृतीय नेत्र है।) उस समय शिक्षा केवल धनोपार्जन का माध्यम नहीं थी। हाँ ‘विद्या अर्थकरी ‘ होनी चाहिए, यह विचार निश्चित ही था। जीवलोक के छह सुखों में ‘अर्थकरी विद्या’ को भी एक सुख माना गया था।

समय ने करवट बदली। भारतीय जनता को अंग्रेजी के साथ ही आधुनिक विपय-
विज्ञान, अर्थशास्त्र. वाणिज्य-शास्त्र आदि सिखाने का अभियान चला। भारत में अंग्रेजों शिक्षण-संस्थाओं का जाल तो फैला, किन्तु वह जीवनयापन की दृष्टि से अयोग्य रहीं। पढ़ -लिखकर सफल बनना मात्र शिक्षा का ध्येय बन गया।
किसान का पुत्र सफल अफसर बनकर कृषक जीवन से नाता तोड़ने लगा। कर्मकाण्डी पंडित का पुत्र इंजीनियर बनकर अपने ही पिता को ‘ पाखण्डी ‘ को उपाधि से विभूषित करने लगा। हाथ का काम करने में आत्महीनता का अनुभव होने लगा। परिणामत: वंश-परम्परागत कार्य ठुकरा दिए गए। इस प्रकार का शिक्षित युवक स्त्रयं॑ तो प्रगति पथ पर अग्रसर होना नहीं चाहता, न देश के उत्पादन में अपना योगदान देना चाहता है। उनमें न परिस्थितियों मे संघर्ष करने की क्षमता है और न अपने पैरों पर खड़े रहने को योग्यता ही। अत्युत्तम प्राकृतिक साधनों के होते हुए भी कमजोर आर्थिक व्यवस्था का मूल कारण भी शिक्षित युवक वर्ग की उदामानता ही है।

व्यावसायिक शिक्षा की कई समस्या हमें देखने को मिलती है जैसे
अनुचित दृष्टिकोण की समस्या
हमारे देश में इस शिक्षा के प्रति लोगों का दृष्टिकोण उचित नहीं है। यहाँ मानसिक श्रम की अपेक्षा शारीरिक श्रम को हेय दृष्टि से देखा जाता है।

    • शिक्षा में अनुपयुक्त माध्यम की समस्या

व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। इससे छात्रों को विषय समझने में कठिनाई होती है।

    • संकीर्ण पाठ्यक्रम की समस्या

इस तरह के विद्यालय का पाठ्यक्रम संकीर्ण होता है। ऐसी शिक्षा ग्रहण करने वाले व्यक्तियों के दृष्टिकोण प्राय: भौतिकवादी हो जाता है और वे समाज की विभिन्न रुचियों, प्रवृतियों तथा आवश्यकताओं को नहीं समझ पाते हैं।

    • विद्यालयों का अभाव

स्वतंत्र भारत में अनेक तकनीकी एवं व्यावसायिक शिक्षा संस्थान स्थापित किये जा चुके हैं। फिर भी व्यापक माँग की अपेक्षा उनकी संख्या कम है। शिक्षा प्राप्त नवयुवक तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने में विशेष रुप से इच्छुक होते हैं, किन्तु विद्यालयों की कमी के कारण उन्हें प्रवेश नहीं मिल पाता है।

    • प्रशिक्षित अध्यापकों का अभाव

तकनीकी शिक्षा संस्थाओं के लिए सुयोग्य प्रशिक्षित अध्यापक नहीं मिल पा रहे हैं जिससे इस शिक्षा के विस्तार-कार्य को काफी धक्का पहुँच रहा है। तकनीकी शिक्षा में जिन विद्यार्थीयों को अच्छे अंक प्राप्त होते हैं, वे आर्थिक कारणों से अन्य संस्थाओं में चले जाते हैं। जिसके कारण औसत मान के विद्यार्थी ही शिक्षकीय पेशा को अपनाते हैं।

    • प्रायोगिक शिक्षा की उपेक्षा

तकनीकी शिक्षा में प्रयोगों का विशेष महत्व है, किन्तु विद्यालयों में सैद्धांतिक शिक्षा पर ही विशेष बल दिया जाता है। तकनीकी विषयों को श्यामपट (ब्लैकबोर्ड) पर ही समझा दिया जाता है। प्रायोगिक शिक्षा के अभाव में विद्यार्थी विषय को
अच्छी तरह नहीं समझ पाते और शिक्षा समाप्ति के पश्चात उन्हें व्यावहारिक क्षेत्र में काफी परेशानी उठानी पड़ती है। व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में अनुसंधान कार्य की सुविधाओं का अभाव है।

व्यावसायिक शिक्षा की समस्याओं के समाधान के लिए प्रमुख सुझाव कुछ इस प्रकार है –

    • दृष्टिकोण में परिवर्तन (Change in attitude)

शारीरिक श्रम के प्रति जनता का दृष्टिकोण बदलना आवश्यक है। इसके लिए सरकार एवं समाज संस्थाओं का कर्तव्य है कि वे जनता को शारीरिक श्रम के महत्व से अवगत कराएं।

    • पर्याप्त संख्या में विद्यालयों की स्थापना (Increase in the number of Vocational schools)

सरकार को विभिन्न स्तर की व्यावसायिक शिक्षा संस्थाओं का स्थापना करनी चाहिए। जिससे की व्यावसायिक शिक्षा की महत्वता को लोग जान सके।

    • विद्यालयों में पढ़ाने के लिए शिक्षकों का प्रोत्साहन (Encouragement to the teachers for teaching in Vocational schools)

तकनीकी विद्यालयों में पढ़ाने के लिए शिक्षकों को प्रोत्साहित करना चाहिए। इस शिक्षा के अभाव की समस्या तभी हल की जा सकती है, जब सरकार इन विद्यालयों के शिक्षकों के वेतन में सुधार लाकर उनके समस्याओं का समाधान करे। इन्हें सुधारने से शिक्षकों को प्रोत्साहन मिलेगा।

    • पाठ्यचर्या में सामान्य शिक्षा का स्थान (General Education in curriculum)

व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा के पाठ्यचर्या में सामान्य शिक्षा को भी उचित स्थान देना चाहिए। पाठ्यचर्या का जीवन के साथ सामंजस्य होना आवश्यक है।

    • राष्ट्रीय भाषा एवं मातृभाषा शिक्षा का माध्यम (National language or Mother tongue is the medium of the instruction)

हिंदी को व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा का माध्यम बनाया जा सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि हिन्दी भाषा में समस्त व्यावसायिक पुस्तकों का अनुवाद कराया जाए।

व्यावसायिक शिक्षा का मानव जीवन में अत्यधिक महत्व है। दैनिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इस शिक्षा के महत्व का आभास होता है और होना भी चाहिए। आधुनिक युग में तो किसी विशेषधर्मी शिक्षा के अभाव में जीवन निर्वाह ही कठिन है। यातायात वाहनों के प्रयोग, विभिन्न वेश-भूषा की संरचना, रोगों के उपचार, रहन-सहन, सांस्कृतिक परिवेश का संरक्षण, मानसिक विकास, संगीत नृत्य नाट्य, चित्राकंन जैसे कार्य के लिए यह शिक्षा अनिर्वाय है। जीविकोपार्जन सम्बन्धी कार्य करने के लिए यह शिक्षा प्रशिक्षण देता है। कहा जाता है कि मनुष्य रोटी के बिना नहीं रह सकता। रोटी कपड़ा और मकान अनिर्वाय है। इसके लिए मनुष्य को कार्य करना ही पड़ता है। किन्तु बिना समुचित प्रशिक्षण के यह कार्य कठिन है।

व्यावसायिक शिक्षा के द्वारा व्यक्ति विभिन्न प्रशिक्षण माध्यम से अपना आवश्यकता को पूर्ण कर सकती है। सांस्कृतिक अभिरुचि की पूर्ति के लिए यह शिक्षा आवश्यक है। संस्कृति ही उसे आत्मिक सौंदर्य एवं उल्लास प्रदान करती है। संगीत साहित्य कला के माध्यम से व्यक्ति सुसंस्कृत एवं सभ्य बनता है। उनका रचनात्मक प्रभाव मानवीय आचार-विचार पर पड़ता है। इस शिक्षा का महत्व इसलिए भी है कि यह व्यक्ति की उन्नति का साधन मात्र न होकर समाज एवं राष्ट्र की उन्नती, राष्ट्रीय एकता, अंतर्राष्ट्रीय बंधुत्व जैसे कार्यों में भी योगदान देती है। समाज, जाति तथा राष्ट्र तभी विकास करती है जब उसमें ड़ाक्टर, इंजीनियर, तकनीशियन, कारीगर आदि हों क्योंकि इन लोगों का विशेष ज्ञान , दक्षता एवं अभिज्ञता ही समाज एवं जाति अथवा राष्ट्र की उन्नति के कारण बन जाते हैं। कला-कौशल, वाणिज्य-व्यवसाय तथा तकनीकी इंजीनियरिंग दृष्टि से विकसित राष्ट्र सहज ही आधुनिक विश्व मंच पर महत्वपूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। इसीलिए व्यावसायिक शिक्षा का अधिक महत्व माना जाता है।

व्यावसायिक शिक्षा का उद्देश्य –

  • इस शिक्षा का आधार मनोवैज्ञानिक होना चाहिए – यह बालक की रुचि, प्रवृति एवं व्यक्तित्व को ध्यान में रखते हुए शिक्षा योजना में शिक्षक एवं पुस्तक के स्थान पर बालक को विशेष महत्व दिया जाना चाहिए।
  • स्थायी ज्ञान की प्राप्ति – इस शिक्षा प्रणाली में प्रत्येक कार्य को वैज्ञानिक ढ़ंग से सिखाया जाता है। विभिन्न क्रियाओं में सक्रिय भाग लेने तथा क्रियाओं के रुचि के अनुकूल होने से इससे प्राप्त ज्ञान स्थायी होता है।
  • व्यक्ति को आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बन एवं आत्मनिर्भर बनाना – इस शिक्षा प्रणाली में स्वावलम्वन एवं आत्मनिर्भरता के सिद्धान्त को अपनाया जाता है।
  • सर्वागीण विकास –
    यह शिक्षा बालक के सर्वागीण विकास पर बल देता है।
  • जीवन से संबंधित –
    यह शिक्षा जीवन से संबंधित है। यह शिक्षा परिवार,श्रम तथा कार्य से संबंधित है।
  • देश की उत्पादन क्षमता को बढ़ाना व्यावसायिक शिक्षा का उद्देश्य है।

व्यावसायिक शिक्षा की विशेषता –

  • इस शिक्षा का आधार मनोवैज्ञानिक है। यह बालक की रुचि, प्रवृति एवं व्यक्तित्व का ध्यान रखती है। इस शिक्षा योजना में शिक्षक एवं पुस्तक के स्थान पर बालक को विशेष महत्व दिया जाता है।
  • जीवन से संवंधित-यह शिक्षा जीवन से संबंधित है। यह शिक्षा परिवार, श्रम तथा कार्य से संबंधित है।
  • इस शिक्षा का आधार व्यक्तित्व का विकास करना है।
  • व्यावसायिक शिक्षा एक विशिष्ट शिक्षा है।
  • व्यावसायिक शिक्षा का रुप स्थिर नहीं रहता है। समय की गति एवं सभ्यता के विकास के साथ इसके रुप में परिवर्तन आता है।
  • व्यावहारिक शिक्षा-यह शिक्षा एक व्यावहारिक शिक्षा है। यह शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान न प्रदान कर जीवन के हर क्षेत्र के लिए उपयोगी होती है। यही व्यावसायिक शिक्षा की विशेषता है।

व्यावसायिक शिक्षा व्यक्तित को समाज की वास्तविकता से परिचित कराएगी। समाज
के विकास में व्यक्ति की भूमिका का ज्ञान कराएगी | व्यावसायिक शिक्षा रोजगार पैटा नहीं करेगी, वह तो व्यक्ति को रोजगार प्राप्त करने अथवा स्वतंत्र रूप से अपनी जीविका अर्जित कराने में सहायक होगी। व्यावसायिक शिक्षा से व्यक्ति का दृष्टिकोण व्यापक होगा। फलस्वरूप वह स्वाध्याय एवं स्वानुभव द्वारा उच्चतम उपलब्धियाँ प्राप्त करने में समर्थ होगा।

यदि हम राष्ट्र की विकासशीलता से अभीष्ट परिणाम चाहते हैं, तो सामान्य शिक्षा
के साथ श्रम के महत्व को प्रमुख स्थान देना होगा। शारीरिक श्रम को बोडिक श्रम के
समकक्ष रखना होगा। सुयोग्य, सुशिक्षित नागरिक तैयार करने होंगे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमें अपनी शिक्षा को व्यवसायपरक एवं जीवनोपयोगी, व्यावहारिक तथा
वास्तविकता के अनुरूप बनाना होगा। ‘ अब वुद्धि-विलास की शिक्षा का वह युग बीत
गया, जबकि शिक्षा मनोरंजन का साधन मानो जाती थी। अब शिक्षा ज्ञानार्जन के साथ-साथ मानव को मानवांय गुणों से युक्त बनाने वाली होनी चाहिए, जिससे वह सभी प्राणियों का क्षमता की दृष्टि से विकास करने का प्रयास करे।

देश में बढ़ती बेरोजगारी, युवाओं में जन्मती दुष्प्रवृत्तियाँ तथा उनका असामाजिक
कृत्यों की ओर झुकाव देश को अराजकता की ओर भधकेल रहा है। इसलिए अनिवार्य है कि हमारी शिक्षा का व्यवसाय के साथ सामंजस्य हो, संतुलन हो। व्यवसायिक शिक्षा, ज्ञान और अनुभव से परिपूर्ण प्रशिक्षित प्रतिभा का सृजन करने का एक स्वच्छंद, स्थिर एवं अपरंपरागत माध्यम है। प्रशिक्षित छात्र इन कोर्सो को करके जमीनी स्तर पर हुनरमंद और काबिल बनते है, और अपना अनुभव और काबिलियत अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में भी दिखाते है। यह बेहद कम समय और खर्चे मे छात्रो को कौशल प्रदान कर उनका जीवन सवार रही है। अपने समकक्ष छात्रो की तुलना मे वोकेशनल शिक्षा प्राप्त कर एक छात्र औरो की तुलना में कही पहले अपना करियर सैटल कर सकता है। जिन्दगी एक रेस की भाँति ही होता है, इसमे उसी का घोड़ा जीतता है, जिसकी लगाम एक कुशल, निपुण और अनुभवी जॉकी के हाथो मे होती है। जिस देश मे जितने ज्यादा स्कील्ड लोग होगे, वह देश उतनी ही तेजी से तरक्की करता है।

 

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