CBSE Class 11 Hindi परियोजना
परियोजना कार्य-1
विषय-पेड़ की बात
मिटटी के नीचे बहत दिनों तक बीज पडे रहे। महीना इसी तरह बीतता गया। सर्दियों के बाद वसंत आया। उसके बाद वर्षा की शुरूआत में दो-एक दिन पानी बरसा। अब और छिपे रहने की ज़रूरत नहीं थी! मानों बाहर से कोई शिशु को पुकार रहा हो, ‘और सोए मत रहो, ऊपर उठ जाओ, सूरज की रोशनी देखा।’ आहिस्ता-आहिस्ता बीज का ढक्कन दरक गया, दो सुकोमल पत्तियों के बीच अंकुर बाहर निकला। अकुंर का एक अंश नीचे माटी में मजबूती से गड़ गया और दूसरा अंश माटी भेद कर ऊपर की ओर उठा।
क्या तुमने अंकुर को उठते देखा है? जैसे कोई शिशु अपना नन्हा-सा सिर उठाकर आश्चर्य से नई दुनिया को देख रहा है! गाछ का अंकुर निकलने पर जो अंश माटी के भीतर प्रवेश करता है, उसका नाम जड़ है और जो अंश ऊपर की ओर बढ़ता है तना कहते हैं। सभी गाछ-बिरछ में ‘जड़ व तना’ ये दो भाग मिलेंगे। यह एक आश्चर्य की बात है कि गाछ-बिरछ को जिस तरह भी रखो. जड नीचे की ओर जाएगी व तना ऊपर की ओर उठेगा।
एक गमले में पौधा था, परीक्षण करने के लिए कुछ दिन गमले को औंधा लटकाए रखा। पौधे का सर नीचे की तरफ लटका रहा और जड़ ऊपर की ओर रही। दो-एक दिन बाद क्या देखता हूँ कि जैसे पौधे को भी सब भेद मालूम हो गया हो। उसकी पत्तियाँ और डालियाँ टेढ़ी होकर ऊपर की तरफ उठ आई तथा जड़ घूमकर नीचे की ओर लटक गईं। तुमने कई बार सर्दियों में मूली काट कर बोई होगी। देखा होगा, पहले पत्ते व फूल नीचे की ओर रहे। कुछ दिन बाद देखोगे कि पत्ते और फूल ऊपर की ओर उठ आए हैं।
हम जिस तरह भोजन करते हैं, गाछ-बिरछ भी उसी तरह भोजन करते हैं। हमारे दाँत हैं, कठोर चीज़ खा सकते हैं। नन्हें बच्चों के दाँत नहीं होते वे केवल दूध पी सकते हैं। गाछ-बिरछ के भी दाँत नहीं होते, इसलिए वे केवल तरल द्रव्य या वायु से भोजन ग्रहण करते हैं। गाछ-बिरछ जड़ के द्वारा माटी से रस-पान करते हैं। चीनी में पानी डालने पर चीनी गल जाती है। माटी में पानी डालने पर उसके भीतर बहुत-से द्रव्य गल जाते हैं। गाछ-बिरछ वे ही तमाम द्रव्य सोखते हैं।
जड़ों को पानी न मिलने पर पेड़ का भोजन बंद हो जाता है, पेड़ मर जाता है। खुर्दबीन से अत्यंत सूक्ष्म पदार्थ स्पष्टतया देखे जा सकते हैं। पेड़ की डाल अथवा जड़ का इस यंत्र द्वारा परीक्षण करके देखा जा सकता है कि पेड़ में हजारों-हज़ार नल हैं। इन्हीं सब नलों के द्वारा माटी से पेड़ के शरीर में रस का संचार होता है। इसके अलावा गाछ के पत्ते हवा से आहार ग्रहण करते हैं। पत्तों में अनगिनत छोटे-छोटे मुँह होते हैं। खुर्दबीन के जरिए अनगिनत मुँह पर अनगिनत होंठ देखे जा सकते हैं।
जब आहार करने की ज़रूरत न हो तब दोनों होंठ बंद हो जाते हैं। जब हम श्वास लेते हैं और उसे बाहर निकालते हैं तो एक प्रकार की विषाक्त वायु बाहर निकलती है उसे ‘अंगारक’ वायु कहते हैं। अगर यह जहरीली हवा पृथ्वी पर इकट्ठी होती रहे तो तमाम जीव-जंतु कुछ ही दिनों में उसका सेवन करके नष्ट हो सकते हैं। ज़रा विधाता की करुणा का चमत्कार तो देखो – जो जीव-जंतुओं के लिए जहर है, गाछ-बिरछ उसी का सेवन करके उसे पूर्णतया शुद्ध कर देते हैं।
पेड़ के पत्तों पर जब सूर्य का प्रकाश पड़ता है, तब पत्ते सूर्य ऊर्जा के सहारे ‘अंगारक’ वायु से अंगार नि:शेष कर डालते हैं और यही अंगार बिरछ के शरीर में प्रवेश करके उसका संवर्धन करते हैं। पेड़-पौधे प्रकाश चाहते हैं। प्रकाश न मिलने पर बच नहीं सकते। गाछ-बिरछ की सर्वाधिक कोशिश यही रहती है कि किसी तरह उन्हें थोड़ा-सा प्रकाश मिल जाए। यदि खिड़की के पास गमले में पौधे रखो, तब देखोगे कि सारी पत्तियाँ व डालियाँ अंधकार से बचकर प्रकाश की ओर बढ़ रही हैं।
वन में जाने पर पता लगेगा कि तमाम गाछ-बिरछ इस होड़ में सचेष्ट हैं कि कौन जल्दी से सर उठाकर पहले प्रकाश को झपट ले। बेल-लताएँ छाया में पड़ी रहने से प्रकाश के अभाव में मर जाएँगी। इसीलिए वे पेड़ों से लिपटती हुई, निरंतर ऊपर की ओर अग्रसर होती रहती हैं। अब तो समझ गए होंगे कि प्रकाश ही जीवन का मूलमंत्र है। सूर्य-किरण का परस पाकर ही पेड़ पल्लवित होता है। गाछ-बिरछ के रेशे-रेशे में सूरज की किरणें आबद्ध हैं। ईंधन को जलाने पर जो प्रकाश व ताप बाहर प्रकट होता है।
वह सूर्य की ही ऊर्जा है। गाछ-बिरछ व समस्त हरियाली प्रकाश हथियाने के जाल हैं। पशु-डाँगर, पेड़-पौधे या हरियाली खाकर अपने प्राणों का निर्वाह करते हैं। पेड-पौधों में जो सूर्य का प्रकाश समाहित है वह इसी तरह जंतुओं के शरीर में प्रकाश करता है। अनाज व सब्जी न खाने पर हम भी बच नहीं सकते हैं। सोचकर देखा जाए तो हम भी प्रकाश की खुराक पाकर ही जीवित हैं। कोई पेड एक वर्ष के बाद ही मर जाता है। सब पेड मरने से पहले संतान छोड जाने के लिए व्यग्र हैं। बीज ही गाछ-बिरछ की संतान है।
बीज की सुरक्षा व सार-सँभाल के लिए पेड़ फूल की पंखुड़ियों से घिरा एक छोटा-सा घर तैयार करता है। फूलों से आच्छादित होने पर पेड़ कितना सुंदर दिखलाई पड़ता है। जैसे फूल-फूल के बहाने वह स्वयं हँस रहा हो। फूल की तरह सुंदर चीज़ और क्या है? ज़रा सोचो तो, गाछ-बिरछ तो मटमैली माटी से आहार व विषाक्त वायु से अंगारक ग्रहण करते हैं, फिर इस अपरूप उपादान से किस तरह ऐसे सुंदर फूल खिलते हैं। कथा सुनी होगी – स्पर्शमणि की पारस पत्थर की, जिसके परस से लोहा सोना हो जाता है।
मेरे खयाल से माँ की ममता ही वह मणि है। संतान पर स्नेह निछावर होते ही फूल खिलखिला उठते हैं। ममता का परस पाते ही मानो माटी व ‘अंगार’ के फूल बन जाते हैं। पेडों पर मसकराते फल देखकर हमें कितनी खुशी होती है! शायद पेड भी कम प्रफुल्लित नहीं होते! खुशी के मौके पर हम अपने परिजनों को निमंत्रित करते हैं। उसी प्रकार फूलों की बहार छाने पर गाछ-बिरछ भी अपने बंधु-बांधवों को बुलाते हैं। स्नेहसिक्त वाणी में पुकार सकते हैं, ‘कहाँ हो मेरे बंधु’, मेरे बांधव आज मेरे घर आओ।
यदि रास्ता भटक जाओ, कहीं घर पहचान नहीं सको, इसलिए रंग-बिरंगे फूलों के निशान लगा रखे हैं। ये रंगीन पंखुड़ियाँ दूर से देख सकोगे।’ मधु-मक्खी व तितली के साथ बिरछ की चिरकाल से घनिष्ठता है। वे दल-बल सहित फूल देखने आती हैं। कुछ पतंगे दिन के समय पक्षियों के डर से बाहर नहीं निकल सकते। पक्षी उन्हें देखते ही खा जाते हैं, इसलिए रात का अँधेरा घिरने तक वे छिपे रहते हैं। शाम होते ही उन्हें बुलाने की खातिर फूल चारों तरफ सुगंध-ही-सुगंध फैला देते हैं।
गाछ अपने फ्लों में शहर का संचय करके रखते हैं। मधु-मक्खी व तितली बड़े चाव से मधुपान करती हैं। मधु-मक्खी के आगमन से बिरछ का भी उपकार होता है। तुम लोगों ने फूल में पराग-कण देखे होंगे। मधु-मक्खियाँ एक फूल के पराग-कण दूसरे फूल पर ले जाती हैं। पराग-कण के बिना बीज पक नहीं सकता। इस प्रकार फूल में बीज फलता है। अपने शरीर का रस पिलाकर बिरछ बीजों का पोषण करता है। अब अपनी जिंदगी के लिए उसे मोह-माया का लोभ नहीं है। तिल-तिल कर संतान की खातिर सब-कुछ लुटा देता है।
जो शरीर कुछ दिन पहले हरा-भरा था, अब वह बिलकुल सूख गया है। अपने ही शरीर का भार उठाने की शक्ति क्षीण हो चली है। पहले हवा बयार करती हुई आगे बढ़ जाती थी। पत्ते हवा के संग क्रीड़ा करते थे। छोटी-छोटी डालियाँ ताल-ताल पर नाच उठती थीं। अब सूखा पेड़ हवा का आघात सहन नहीं कर सकता। हवा का बस एक थपेड़ा लगते ही वह थर-थर काँपने लगता है। एक-एक करके सभी डालियाँ टूट पड़ती हैं। अंत में एक दिन अकस्मात पेड़ जड़ सहित ज़मीन पर गिर पड़ता है। इस तरह संतान के लिए अपना जीवन न्योछावार करके बिरछ समाप्त हो जाता है।
प्रश्नः 1.
वृक्ष कब मर जाता है?
उत्तर:
जब वृक्ष की जड़ों को पानी नहीं मिलता, तो इन्हें भोजन की आपूर्ति नहीं होती। तब पेड़ मर जाता है।
प्रश्नः 2.
‘अंगारक वायु’ किसे कहते हैं ? इससे क्या हानि होती है?
उत्तर:
मनुष्य के फेफड़ों से जो विषाक्त वायु बाहर निकलती है, उसे अंगारक वायु कहते हैं। यदि यह जहरीली हवा पृथ्वी पर इकट्ठी होती रहे तो सारे जीव-जंतु कुछ ही दिनों में इसका सेवन करने से नष्ट हो सकते हैं।
प्रश्नः 3.
लेखक ने वृक्ष की संतान किसे कहा है?
उत्तर:
बीज ही वृक्ष की संतान है।
प्रश्नः 4.
“गाछ-बिरछ को जिस भी तरह रखो, जड़ नीचे की ओर और तना ऊपर की ओर उठेगा।” यह सिदध करने के लिए लेखक ने क्या परीक्षण किया?
उत्तर:
‘गाछ-बिरछ को जिस भी तरफ रखो, जड नीचे की ओर और तना ऊपर की ओर उठेगा।’ – यह सिद्ध करने के लिए एक गमले को जिसमें पौधा लगा था, कुछ दिन उसे औंधा लटका दिया। पौधे का सर नीचे की तरफ तथा जड़ ऊपर की र उठेगा की यह सिद्ध ओर लटकी रही। एक-दो दिन बाद, उसकी पत्तियाँ व डालियाँ टेढी होकर ऊपर की तरफ उठ गईं और जड घुमकर नीचे की ओर लटक गई। ऐसा लगा मानो पौधे को सब भेद मालूम हो गया।
प्रश्नः 5.
वृक्ष ‘अंगारक वायु’ से होने वाली हानि से हमें किस प्रकार बचाते हैं ?
उत्तर:
जीव जिस विषाक्त वायु को बाहर निकालता है, उसे अंगारक वायु कहते हैं। वृक्ष के पत्तों पर अनगिनत छोटे-छोटे मुँह होते हैं। जब इन्हें आहार की ज़रूरत न हो तो ये होंठ बंद रखते हैं। अंगारक वायु जीव के लिए जहर है, परंतु वृक्ष उसी का सेवन करके उसे पूर्णतया शुद्ध कर देते हैं। पेड़ के पत्तों पर जब सूर्य का प्रकाश पड़ता है, तब पहले सूर्य ऊर्जा के सहारे ‘अंगारक वायु’ से अंगार नि:शेष कर डालते हैं और यही अंगार पेड़ के शरीर में प्रवेश करके उसका संवर्धन करते
प्रश्नः 6.
वृक्ष बीज की सुरक्षा किस प्रकार करता है?
उत्तर:
हर पेड़ मरने से पहले संतान छोड़ने के लिए व्यग्र होता है। बीज ही वृक्ष की संतान है। वह उसकी सुरक्षा व सार-संभाल के लिए फूल की पंखुड़ियों से घिरा एक छोटा-सा घर तैयार करता है। तब वह मधुमक्खियों व तितलियों को बुलाता है। वे परागकण की क्रिया से बीज पका देते हैं। इस प्रकार फूल में बीज फलता है। वृक्ष अपने शरीर का रस मिलाकर बीज
का पालन पोषण करता है।
प्रश्नः 7.
मधुमक्खियों और तितलियों की वृक्ष के साथ चिरकाल से घनिष्ठता है। कैसे?
उत्तर:
मधुमक्खियों व तितलियों की वृक्ष के साथ चिरकाल से घनिष्ठता है वे दल-बल सहित फूल देखने आती हैं। कुछ पतंगे दिन के समय पक्षियों के डर से बाहर नहीं निकलते। पक्षी उन्हें देखते ही खा जाते हैं, इसलिए रात का अंधेरा घिरने तक वे छिपे रहते हैं। शाम होते ही उन्हें बुलाने की खातिर फूल चारों तरफ सुगंध-ही-सुगंध फैला देते हैं। वृक्ष अपने फूलों में शहद का संचय करके रखते हैं। मधु-मक्खी व तितली बड़े चाव से मधुपान करती हैं। मधु-मक्खी के आगमन से बिरछ का उपकार भी होता है। मधु-मक्खियाँ एक फूल के पराग-कण दूसरे फूल पर ले जाती हैं और पराग-कण के बिना बीज भी पक नहीं सकता। अतः हम कह सकते हैं कि मधुमक्खियों और तितलियों की वृक्ष से चिरकाल से घनिष्ठता है।
प्रश्नः 8.
लेखक ने वृक्ष और मानव जीवन में क्या समानताएँ दर्शाई हैं?
उत्तर:
लेखक ने वृक्ष और मानव जीवन में समानाएँ दर्शाई हैं, जिस प्रकार शिशु जन्म लेता है उसी प्रकार वृक्ष का अंकुर भी निकलता है। मनुष्य जिस प्रकार भोजन करते हैं, वृक्ष भी उसी प्रकार भोजन करते हैं। वृक्षों के दाँत नहीं होते, अतः वे तरल द्रव्य वायु से भोजन ग्रहण करते हैं। वे जड़ के द्वारा मिट्टी से रस-पान करते हैं। पत्तों में अनगिनत छोटे-छोटे मुँह होते हैं। खर्बदीन के जरिए अनगिनत मुँह पर अनगिनत होंठ देखे जा सकते हैं। जब आहार करने की ज़रूरत हो जब दोनों होंठ बंद हो जाते हैं। जिस प्रकार हमारे लिए प्रकाश आवश्यक है उसी प्रकार पेड़-पौधों के लिए भी। जिस प्रकार मनुष्य की मृत्यु हो जाती है उसी प्रकार पेड़ भी अपनी संतान छोड़कर एक समय बाद मर जाता है।
परियोजना कार्य-2
विषय-व्यक्ति का पुनर्निर्माण
आज पुनर्निर्माण की चर्चा है व्यक्ति के नहीं, समाज के; अपने नहीं, दूसरों के। क्या व्यक्ति का पुनर्निर्माण एकदम उपेक्षा की चीज़ है? यह सत्य है कि व्यक्ति समाज की उपज है, और यदि सारा समाज लूला-लँगड़ा रहे, तो एक व्यक्ति भी सीधा नहीं खड़ा हो सकता। किंतु फिर समाज भी तो व्यक्तियों का ही समूह हैं।
यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने सुधार की ओर ध्यान दे तो पूरे समाज का निर्माण कितना आसान है।
बौद्ध धर्म में सम्यक् व्यायाम के चार अंग कहे गए हैं-
- इस बात की सावधानी रखना कि अपने में कोई अवगुण न आ जाए।
- इस बात का प्रयत्न करना कि अपने अवगुण दूर हो जाएँ।
- इस बात की सावधानी रखना कि अपने सद्गुण चले न जाएँ।
- इस बात का प्रयत्न करना कि अपने में नए सद्गुण चले आएँ। परियोजना
बाग में यदि अच्छे फल-फूल न लगवाए जाएँ और ज़मीन को यों ही बेकार पड़ी रहने दिया जाए, तो उसमें बेकार के झाड़-झंखाड़ उग ही आएँगे। यदि अवगुणों को दूर करने और सद्गुणों को लाने का उपाय निरंतर नहीं किया जाएगा तो अवगुण बने ही रहेंगे, और सद्गुण नहीं आएँगे। इसलिए यदि इस चतुर्मुखी कार्यक्रम को घटाकर इसके केवल दो अंगों (अवगुणों को दूर करना और सद्गुणों को अपनाना) को स्वीकार कर लिया जाए तो भी मैं समझता हूँ भगवान बुद्ध का उद्देश्य पूरा हो सकता है।
अवगुणों को दूर करना और सद्गुणों को अपनाना ये दोनों भी क्या अर्थ की दृष्टि से एक नहीं हैं ? इसका उत्तर हाँ और नहीं दोनों ही देना होगा।
एक आदमी को व्यर्थ बक-बक करने की आदत है। यदि वह अपनी आदत को छोड़ता है, तो वह अपने व्यर्थ बोलने के अवगुण को छोड़ता है। किंतु साथ ही और अनायास ही वह मितभाषी होने के सद्गुण को अपनाता चला जाता है। यह तो हुआ ‘हाँ’ पक्ष का उत्तर। किंतु एक दूसरे आदमी को सिगरेट पीने का अभ्यास है। वह सिगरेट पीना छोड़ता है और उसके बजाए दूध से प्रेम करना सीखता है, तो सिगरेट पीना छोड़ना एक अवगुण को छोड़ना है और दूध से प्रेम जोड़ना एक सद्गुण को अपनाना है। दोनों ही भिन्न वस्तुएँ हैं-पृथक-पृथक।
अवगुण को दूर करने और सद्गुण को अपनाने के प्रयत्न में, मैं समझता हूँ कि अवगुणों को दूर करने के प्रयत्नों की अपेक्षा सद्गुणों को अपनाने का ही महत्त्व अधिक है। किसी कमरे में गंदी हवा और स्वच्छ वायु एक साथ रह ही नहीं सकती। कमरे में हवा रहे ही नहीं, यह तो हो ही नहीं सकता। गंदी हवा को निकालने का सबसे अच्छा उपाय एक ही है। सभी दरवाजे और खिड़कियाँ खोलकर स्वच्छ वायु को अंदर आने देना।
अवगुणों को भगाने का सबसे अच्छा उपाय है, सद्गुणों को अपनाना। ऐसी बातें पढ़-सुनकर हर आदमी वह बात कहता सुनाई देता है जो किसी समय बेचारे दुर्योधन के मुँह से निकली थी
“धर्म जानता हूँ, उसमें प्रवृत्ति नहीं।
अधर्म जानता हूँ, उससे निवृत्ति नहीं।
” एक आदमी को कोई कटेव पड गई – सिगरेट पीने की ही सही। अत्यधिक सिनेमा देखने की ही सही। बेचारा बहत संकल्प करता है, बहुत कसमें खाता है कि अब सिगरेट न पीऊँगा, अब सिनेमा देखने न जाऊँगा, किंतु समय आने पर जैसे आप ही आप उसके हाथ सिगरेट तक पहुँच जाते हैं और सिगरेट उसके मुंह तक। बेचारे के पाँव सिनेमा की ओर जैसे आप ही आप बढ़े चले जाते हैं। क्या सिगरेट न पीने का और सिनेमा न देखने का उसका संकल्प सच्चा नहीं? क्या उसने झूठ कसम खाई है? क्या उसके संकल्प की दृढ़ता में कमी है? नहीं, उसका संकल्प तो उतना ही दृढ़ है जितना किसी का हो सकता है। तब उसे बार-बार असफलता क्यों होती है?
इस असफलता का कारण और सफलता का रहस्य कदाचित इस एक ही उदाहरण से समझ में आ जाए। ज़मीन पर एक छह इंच या एक फुट लंबा-चौड़ा लकड़ी का तख्ता रखा है। यदि आपसे उस पर चलने के लिए कहा जाए तो आप चल सकेंगे? क्यों नहीं? बड़ी आसानी से। अब इसी तख्ते के एक सिरे को किसी मकान की छत पर रख दिया जाए और शेष तख्ते को यों ही आकाश में आगे बढ़ा दिया जाए और तब आपसे इसी तख्ते पर चलने के लिए कहा जाए, तो क्या आप तब भी उस पर चल सकेंगे? डर लगेगा। नहीं चल सकेंगे।
कोई पूछे क्यों? आप इसके अनेक कारण बताएँगे। सच्चा कारण एक ही है। आप नहीं चल सकते, क्योंकि आप समझते हैं आप नहीं चल सकते। यदि आप विश्वास कर लें कि आप चल सकते हैं, और उसी लकड़ी के तख्ते को थोड़ा-थोड़ा ज़मीन से ऊपर उठाते हुए उसी पर चलने का अभ्यास करें तो आप उस पर बड़े आराम से चल सकेंगे। सरकस वाले पतले-पतले तारों पर कैसे चल लेते हैं? वे विश्वास करते हैं कि वे चल सकते हैं, तदनुसार अभ्यास करते हैं और वे चल ही लेते हैं।
यदि आप किसी अवगुण को दूर करना चाहते हैं, तो उससे दूर रहने के दृढ़ संकल्प करना छोड़िए, क्योंकि जब आप उससे दूर-दूर रहने की कसमें खाते हैं, तब भी आप उसी का चिंतन करते हैं। चोरी न करने का संकल्प भी चोरी का ही संकल्प है। पक्ष में न सही, विपक्ष में सही। है तो चोरी के ही बारे में। चोरी न करने की इच्छा रखने वाले को चोरी के संबंध में कोई संकल्प-विकल्प नहीं करना चाहिए।
हम यदि अपने संकल्प-विकल्पों द्वारा अपने अवगुणों को बलवान न बनाएँ तो हमारे अवगुण अपनी मौत आप मर जाएँगे। आपकी प्रकृति चंचल है, आप अपने ‘गंभीर स्वरूप’ की भावना करें। यथावकाश अपने मन में ‘गंभीर स्वरूप’ का चित्र देखें। अचिरकाल में ही आपकी प्रकृति बदल जाएगी।
यदि आपकी प्रकृति अस्वस्थ है तो आप अपने ‘स्वस्थ स्वरूप’ की भावना करें और यथावकाश अपने मन में ‘स्वस्थ स्वरूप’ का चित्र देखें। अचिरकाल में ही आपकी प्रकृति बदल जाएगी। यदि आपकी प्रकृति अशांत है, तो आप अपने ही ‘शांत स्वरूप’ की भावना करें, यथावकाश अपने मन में अपने ‘शांत स्वरूप’ का चित्र देखें। अचिरकाल में ही प्रकृति बदल जाएगी। शायद आपको गंभीरता, स्वास्थ्य, शांति की उतनी आवश्यकता ही नहीं जितनी दूसरी लौकिक चीज़ों की है।
उन चीजों की प्राप्ति में यह नियम निश्चयात्मक रूप से सहायक होगा किंतु निर्णायक नहीं। संसार में प्रत्येक कार्य अनेक कारणों से होता है। यदि दूसरे कारण एकदम प्रतिकूल हों तो अकेली भावना क्या करेगी? कोई तरुण अपने शरीर को बलवान बनाना चाहता है। खाने-पीने के साधारण नियमों का खयाल नहीं करता, स्वच्छ वायु में नहीं सोता, व्यायाम नहीं करता, केवल भावना के ही बल पर बलवान होना चाहता है, यह असंभव है।
भावना अपना काम करती है, किंतु अकेली भावना खाने-पीने, स्वच्छ वायु और व्यायाम सभी की जगह नहीं ले सकती। जो बलवान बनने की सच्ची भावनाएँ करेगा, वह अपने खाने-पीने, स्वच्छ वायु और व्यायाम की चिंता भी करेगा। इन अर्थों में भावना को सर्वार्थ और साधिकार कहा जा सकता है।
सभी भावनाओं में श्रेष्ठ भावना एक ही है, जिसे जैन, बौद्ध, हिंदू सभी ने अपने-अपने धर्म-ग्रंथों में स्थान दिया है –
सचमुच इससे बढ़कर ब्रह्म-विचार की कल्पना नहीं की जा सकती।
प्रश्नः 1.
लेखक की दृष्टि में आज किसके पुनर्निर्माण की चर्चा है?
उत्तर:
लेखक की दृष्टि में आज व्यक्ति के पुनर्निर्माण की चर्चा है।
प्रश्नः 2.
चंचल प्रकृति वाले व्यक्ति को कैसी भावना रखनी चाहिए?
उत्तर:
चंचल प्रकृति वाले व्यक्ति को गंभीर स्वरूप की भावना रखनी चाहिए।
प्रश्नः 3.
शरीर को बलवान बनाने के लिए भावना के साथ-साथ अन्य किन बातों पर ध्यान देना चाहिए?
उत्तर:
शरीर को बलवान बनाने के लिए भावना के साथ-साथ अपने खाने-पीने, स्वच्छ वायु और व्यायाम का भी ध्यान करना चाहिए। केवल भावना के बल पर बलवान होना असंभव है।
प्रश्नः 4.
सभी धर्मग्रंथों में किस श्रेष्ठ भावना को स्थान दिया गया है?
उत्तर:
प्रश्नः 5.
‘प्रत्येक व्यक्ति के अपने सुधार से पूरे समाज का निर्माण आसान हो जाता है।’ कैसे?
उत्तर:
समाज व्यक्तियों का समूह है। इन दोनों में घनिष्ठ संबंध है। व्यक्ति समाज की उपज है। एक व्यक्ति की आदतों का असर दूसरे पर पड़ता है। यदि हर व्यक्ति स्वयम् को सुधार ले, तो पूरा समाज ही सुधर जाता है। अतः यह बात सही है कि प्रत्येक व्यक्ति के अपने सुधार से पूरे समाज का निर्माण आसान हो जाता है।
प्रश्नः 6.
बौद्ध धर्म में सम्यक् व्यायाम के कौन-से चार अंग बताए गए हैं? उनमें से केवल दो को ही महत्त्व क्यों दिया गया
उत्तर:
बौद्ध धर्म में सम्यक् व्यायाम के चार अंग बताए गए हैं
- इस बात की सावधानी रखना कि अपने में कोई अवगुण न आ जाए।
- इस बात का प्रयत्न करना कि अपने अवगुण दूर हो जाएँ।
- इस बात की सावधानी रखना कि अपने सद्गुण न चले जाएँ।
- इस बात का प्रयत्न करना कि अपने में नए सद्गुण चले जाएँ।
इनमें दो अंगों को (अवगुणों को दूर करना व सद्गुणों को अपनाना) ही महत्त्व दिया गया, क्योंकि यदि अवगुणों को दूर नहीं किया गया और सद्गुणों को नहीं अपनाया गया तो समाज में सुधार नहीं होगा। व्यक्ति का पुनर्निर्माण नहीं हो सकता।
प्रश्नः 7.
बुरी आदत छोड़ने का दृढ़ संकल्प करने पर भी बार-बार असफलता क्यों मिलती है?
उत्तर:
बुरी आदत छोड़ने का दृढ़ संकल्प करने पर भी बार-बार असफलता मिलती है, क्योंकि जब मनुष्य बार-बार अवगुण से
दूर रहने की कसम खाता है तो हर बार उसी का चिंतन करता है। उसे विश्वास नहीं होता कि वह यह बुरी आदत नहीं छोड़ पाएगा। वह उसे अपने चिंतन से बलवान बनाता चलाता है। जैसे चोरी न करने का संकल्प भी चोरी का ही संकल्प है। चोरी न करने की इच्छा रखने वाले को चोरी के संबंध में कोई विकल्प-संकल्प नहीं करना चाहिए।
परियोजना कार्य-3
विषय-मनुष्य का भविष्य
मनुष्य अपने भविष्य के बारे में चिंतित है। सभ्यता की अग्रगति के साथ ही चिंताजनक अवस्था उत्पन्न होती जा रही है। इस व्यावसायिक युग में उत्पादन की होड़ लगी हुई है। कुछ देश विकसित कहे जाते हैं, कुछ विकासोन्मुख। विकसित देश वे हैं जहाँ आधुनिक तकनीक का पूर्ण उपयोग हो रहा है। ऐसे देश नाना प्रकार की सामग्री का उत्पादन करते हैं और उस सामग्री की खपत के लिए बाज़ार ढूँढते रहते हैं। अत्यधिक उत्पादन-क्षमता के कारण ही ये देश विकसित और अमीर हैं।
विकासोन्मुख या गरीब देश उनके समान ही उत्पादन करने की आकांक्षा रखते हैं और इसीलिए उन सभी आधुनिक तरीकों की जानकारी प्राप्त करते हैं। उत्पादन-क्षमता बढ़ाने का स्वप्न देखते हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि सारे संसार में उन वायुमंडल-प्रदूषण यंत्रों की भीड़ बढ़ने लगी है जो विकास के लिए परम आवश्यक माने जाते हैं। इन विकार-वाहक उपकरणों ने अनेक प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न कर दी हैं।
वायुमंडल विषाक्त गैसों से ऐसा भरता जा रहा है कि मनुष्य का सारा पर्यावरण दूषित हो उठा है, जिससे वनस्पतियों तक के अस्तित्व संकटापन्न हो गए हैं। अपने बढ़ते उत्पादन को खपाने के लिए हर शक्तिशाली देश अपना प्रभाव-क्षेत्र बढ़ा रहा है और आपसी प्रतिद्वंद्विता इतनी बढ़ गई है कि सभी ने मारणास्त्रों का विशाल भंडार बना रखा है। विज्ञान और तकनीकी के विकास से अणु बमों की अनेक संहारकारी किस्में ईज़ाद हुई हैं।
ये यदि किसी सिर-फिरे राष्ट्रनायक की झक के कारण सचमुच युद्ध क्षेत्र में प्रयुक्त होने लगें तो पृथ्वी जीवशून्य हो जाएगी। कहीं भी थोड़ा-सा प्रमाद हुआ तो मनुष्य का नामलेवा कोई नहीं रह जाएगा। एक ओर जहाँ मनुष्य की बुद्धि ने धरती को मानव शून्य बनाने के भयंकर मारणास्त्र तैयार कर दिए हैं वहीं दूसरी ओर मनुष्य ही इस भावी मानव-विनाश की आशंका से सिहर भी उठा है। उसका एक समझदार समुदाय इस प्रकार की कल्पना मात्र से आतंकित हो गया है कि न जाने किस दिन संसार इस विनाश लीला का शिकार हो जाए।
इतिहास साक्षी है कि बहुत-सी जीव-प्रजातियाँ विभिन्न कारणों से हमेशा-हमेशा के लिए विलुप्त हो गईं, बहुत-सी आज भी क्रमशः विलुप्त होने की स्थिति में है, पर उनके मन में कभी अपनी प्रगति के नष्ट हो जाने की आशंका हुई थी या नहीं, हमें नहीं मालूम। शायद मनुष्य पहला प्राणी है जिसमें थोड़ा-बहुत भविष्य देखने की शक्ति है। अन्य जीवों में यह शक्ति थी ही नहीं। यह विशेष रूप से ध्यान देने की बात है कि सिर्फ मनुष्य ही है जो अपने भविष्य के बारे में चिंतित है।
यह सभी जानते हैं कि आधुनिक विज्ञान और तकनीकी ने मनुष्य को बहत-कुछ दिया है। उसी की कृपा से संसार के मनुष्य एक-दूसरे के निकट आए हैं, अनेक पुराने संस्कार जो गलतफहमी पैदा करते थे, झड़ते जा रहे हैं। मनुष्य के नीरोग, दीर्घजीवी और सुसंस्कृत बनाने के अनगिनत साधन बढ़े हैं, फिर भी मनुष्य चिंतित है। जो अंधाधुंध प्रकृति के मूल्यवान भंडारों की लूट मचाकर आराम और संपन्नता प्राप्त कर रहे हैं, वे बहुत परेशान नहीं हैं।
वे यथा स्थिति भी बनाए रखना चाहते हैं और यदि संभव हो तो अपनी व्यक्तिगत, परिवारगत और जातिगत संपन्नता अधिक-से-अधिक बढ़ा लेने के लिए परिश्रम भी कर रहे हैं। ऐसे सुखी लोग ‘मनुष्य का भविष्य’ जैसी बातों के कारण परेशान नहीं हैं। पर जो लोग अधिक संवेदनशील हैं और मनुष्य-जाति को महानाश की ओर बढ़ते देखकर विचलित हो उठते हैं, वे ही परेशान हैं। उनकी संख्या कम है। उनमें विवेक की मात्रा अधिक है और साधारण सुखी लोगों की तुलना में उनके भीतर दर्द है, व्याकुलता है और चिंता है। कबीर ने इन दो श्रेणियों के लोगों को समझा था। वे कह गए हैं
सुखिया सब संसार है खाए और सोए।
दुखिया दास कबीर है जागे और रोए।।
यह ‘जागना’ सारी चिंता का मूल है। जागना अर्थात् विवेक के साथ सोचना। निस्संदेह, मनुष्य ने अपने-आपके लिए ‘महती विनष्टि’ के साधन ढूँढ लिए हैं और यह बड़ी तेज़ी से महानाश की ओर दौड़ पड़ा है। यह भयंकर दुःसंवाद है। परंतु साथ ही मनुष्य की जिस बुद्धि ने यह सारा साज-सामान तैयार किया है, वह जाग भी रही है। मनुष्य के हृदय में पीड़ा है, तड़प है, यह आशा की बात है। यदि पीड़ा है तो आशा भी है।
ऊपर का वाक्य ‘यदि पीड़ा है तो आशा भी है’ एक प्रसिद्ध चिकित्सक की उक्ति है, जिसे मेरे परम संत मित्र प्रो० गुरुदयाल मलिक जी ने जीवन-मंत्र की तरह ग्रहण कर लिया था। उन्होंने एक बार इस ‘सच’ की कहानी सुनाई थी। मेरे संत मित्र प्रो० गुरुदयाल मलिक बाल ब्रह्मचारी थे। वे गुरुदेव और गांधी जी, दोनों के शिष्य थे। दीनबंधु सी.एफ. एंडूज के तो वे स्नेहभाजन सहकर्मी थे। मलिक जी जैसा सेवाव्रती-निश्छल व्यक्ति भगवान की याचना-अनुग्रह से ही मिलते हैं-‘बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता!’ मलिक जी एक मित्र से मिलने मुंबई गए थे।
मित्र उनसे मिलकर प्रसन्न हो गए, एक कठिन समस्या का समाधान भी पा गए। उन्हें कहीं आवश्यक कार्य से बाहर जाना था, उधर घर में बच्चा पैदा होने का समय निकट आ गया था। इस उधेड़बुन में थे कि कैसे जाएँ। समाधान के रूप में मलिक जी मिल गए। बोले, “भाई, तुम दो-तीन दिन मेरा घर देखो, मुझे बहुत ज़रूरी काम से बाहर जाना है।” बाल ब्रह्मचारी मलिक जी को गृहस्थ के सभी कर्तव्यों का पालन करने की हिदायत देकर वे निश्चित होकर बाहर चले गए।
जाते समय परिवार की महिला डॉक्टर और नौं की सूची भी थमा गए। यह भी कह गए कि अगर ज़्यादा तकलीफ दिखे तो अमुक विदेशी डॉक्टर को भी बुला लेना। टेलीफोन पर उस डॉक्टर से उनका परिचय भी करा गए। मलिक जी सहज सेवाव्रती थे। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक सब स्वीकार कर लिया, पर उन्हें बाद में पता चला कि जिसकी सेवा करनी है उसके निकट भी नहीं जा सकते। परीक्षाकाल जल्दी ही आ गया। दूर रहने पर भी वे कराह की आवाज़ सुन सकते थे। घबराकर उन्होंने महिला डॉक्टर को फ़ोन किया।
वे आईं और मलिक जी को आश्वस्त करके चली गईं। आर्त कराह सुनाई देती रही। उन्होंने फिर डॉक्टर को फ़ोन किया। डॉक्टर ने कहा, “घबराने की बात नहीं है।” मलिक जी को कुछ सूझ नहीं रहा था। घर की दासियाँ उन्हें आश्वस्त कर जाती थीं। वे भगवान का ध्यान करने बैठ गए, लेकिन कातर कराह उन्हें ध्यान भी नहीं करने दे रही थी। सुबह होते-होते तो वे व्याकुल हो उठे और अंतिम उपाय बड़े जर्मन डॉक्टर को बुलाना ही सूझा। उनके घिघियाहट-भरे स्वर से डॉक्टर ने समझा कि मामला संगीन है।
अपने साथ प्रशिक्षित नौं और अनेक प्रकार के यंत्र और औषधि से सुसज्जित होकर पंद्रह मिनट में पहुँचने का निश्चय बताया। वे आ गए। मलिक जी का चेहरा सफेद हो गया था। वे बाहर चहलकदमी कर रहे थे और प्रतिक्षण डॉक्टर के आने की व्याकुल प्रतीक्षा कर रहे थे। उनके चेहरे से डॉक्टर ने विषम स्थिति का अनुमान कर लिया। गाड़ी से प्रायः कूदकर उतरे और पहला सवाल किया-“इज़ देअर पेन” (क्या पीड़ा हो रही है) मलिक जी के “हाँ” कहने पर बोले, कोई चिंता नहीं ‘पीड़ा है तो आशा भी है।
नौं ने देखकर डॉक्टर को सूचना दी कि कोई विशेष बात नहीं है। इस बीच डॉक्टर ने बातचीत से यह जान लिया था कि यह भोला ब्रह्मचारी जीवन में पहली बार यह बात देख रहा है। वे गए नहीं, रुके रहे और थोड़ी ही देर में नौं ने स्वस्थ पुत्र उत्पन्न होने की सूचना दी। यह सब तो हुआ, पर मलिक जी को जैसे गुरुमंत्र ही मिल गया- अगर पीड़ा है तो आशा भी है! जीवन में न जाने कितने रूपों में पीड़ा में छिपी हुई आशा को देखा था। मैंने भी उनके अनुभवों को सुनकर यह मंत्र स्वीकार कर लिया है।
पीड़ा है तो आशा भी है! सोचने-समझने वाला मनुष्य-आज चिंतित है। उसके मन में दर्द है। सैंकड़ों प्रमाण दिए जा सकते हैं कि मनुष्य जाग्रत है। वह विवेक एकदम नहीं खो बैठा है। मनुष्य आज भी जागरूक है। जिस किसी ने मनुष्य को इस रूप में विकसित किया है, वह भी सावधान है। मनुष्यता निस्संदेह बच जाएगी। कितनी बार मनुष्य भटका है, गिरा है, बेहोश हुआ है, इसका कोई हिसाब नहीं बताया जा सकता।
फिर भी वह सम्हल कर फिर से उठा है, अपनी ही गलतियों के जाल से अपने को मुक्त किया है
और फिर नई ज्योति जलाकर-और कुछ नहीं मिला तो अपनी हड्डी-पसलियों का ही मशाल जलाकर- वह आगे बढ़ा है। निस्संदेह विषम संकट उपस्थित हुआ है, पर इसमें भी संदेह नहीं कि वह इस बार भी बचेगा और नई आशा, नई उमंग लेकर फिर आगे बढ़ेगा-मनुष्य का भविष्य निश्चय ही उज्ज्वल है!
प्रश्नः 1.
देशों की आपसी प्रतिद्वंद्विता बढ़ने का क्या कारण है?
उत्तर:
देशों की आपसी प्रतिद्वंद्विता बढ़ने का कारण है-विकसित देशों द्वारा अपने उत्पादन को खपाने के लिए प्रभाव क्षेत्र बढ़ाना।
प्रश्नः 2.
वायुमंडल जहरीला क्यों होता जा रहा है?
उत्तर:
आज संसार में विकसित व विकासशील देश अनेक प्रकार की सामग्री बना रहे हैं। इससे वायुमंडल में प्रदूषक यंत्रों की भीड़ बढ़ रही है। इनसे अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। विकास के नाम पर ये यंत्र वायुमंडल को विषाक्त कर रहे हैं।
प्रश्नः 3.
लेखक के अनुसार मनुष्य अन्य प्राणियों से किस प्रकार भिन्न हैं?
उत्तर:
लेखक के अनुसार, केवल मनुष्य ही पहला प्राणी है जिसमें थोड़ा बहुत भविष्य देखने की शक्ति है। अन्य जीवों में यह शक्ति थी ही नहीं। इस कारण मनुष्य अन्य प्राणियों से भिन्न है।
प्रश्नः 4.
लेखक ने ‘भयंकर दुःसंवाद’ शब्दों का प्रयोग किस स्थिति के लिए किया है?
उत्तर:
आज मनुष्य ने अपने लिए महान् विनाश के साधन ढूँढ़ लिए हैं और वह बड़ी तेज़ी से महानाश की ओर दौड़ पड़ा है। यह भयंकर दुःसंवाद है।
प्रश्नः 5.
लेखक ने मलिक जी के लिए भोला ब्रह्मचारी’ शब्द का प्रयोग क्यों किया?
उत्तर:
मलिक जी बाल ब्रह्मचारी थे। उन्होंने कभी बच्चे के जन्म के समय का दर्द पहली बार देखा था। अतः वे बहुत परेशान थे। इसी कारण लेखक ने मलिक जी के लिए ‘भोला ब्रह्मचारी’ शब्द का प्रयोग किया है।
प्रश्नः 6.
विकासोन्मुख देश वे हैं जो –
(क) विविध प्रकार की सामग्री का उत्पादन करते हैं।
(ख) उत्पादन क्षमता में वृद्धि का सपना संजोते हैं।
(ग) शक्ति और समृद्धि से परिपूर्ण हैं।
(घ) आधुनिक तकनीक का भरपूर प्रयोग करते हैं।
उत्तर:
(ख) उत्पादन क्षमता में वृद्धि का सपना संजोते हैं।
प्रश्नः 7.
विकसित और विकासोन्मुख देशों में क्या भिन्नताएँ हैं?
उत्तर:
विकसित देश वे हैं जहाँ आधुनिक तकनीक का पूर्ण उपयोग हो रहा है। ये देश अनेक प्रकार की सामग्री का उत्पादन करते हैं और उस सामग्री की खपत के लिए बाज़ार ढूँढ़ते रहते हैं। अत्यधिक उत्पादन क्षमता के कारण ही ये देश विकसित और अमीर हैं। विकासोन्मुख देश वे हैं। जो विकसित देशों के समान ही उत्पादन करने की आकांक्षा रखते हैं। इसलिए उन सभी आधुनिक तरीकों की जानकारी प्राप्त करते हैं उत्पादन क्षमता बढ़ाने का स्वप्न देखते हैं।
प्रश्नः 8.
विकास के साथ विनाश किस प्रकार जुड़ा हुआ है?
उत्तर:
आज संसार में विकसित देश अपने उत्पादन को खपाने के लिए अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ा रहे हैं। इससे प्रतिद्वंद्विता इतनी बढ़ गई है कि सब ने मारणास्त्रों का विशाल भंडार बना रखा है। दूसरी तरफ विकासोन्मुख देश भी उत्पादन बढ़ाने की इच्छा करते हैं। वे नई तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं। इससे वायुमंडल विषाक्त होता जा रहा है और वनस्पतियों तक का अस्तित्व संकट में आ गया है।
परियोजना कार्य-4
विषय-कब्रिस्तान में पंचायत यह शीर्षक कुछ चौंकाने वाला लग सकता है। पर मेरी मज़बूरी है कि जिस घटना का बयान करने जा रहा हूँ, उसके लिए इसके सिवा कोई शीर्षक हो ही नहीं सकता। कब्रिस्तान वह जगह है जहाँ सारी पंचायतें खत्म हो जाती हैं। कब्रिस्तान का जो पक्ष मुझे दिलचस्प लगता है वह यह कि कई बार मृतकों के घर के आजूबाजू जिंदा लोगों के भी घर होते हैं। जीवन और मृत्यु का यह विलक्षण सह-अस्तित्व सिर्फ एक कब्रिस्तान में ही दिखाई पड़ता है-जहाँ एक ओर नया गड्ढा खोदा जा रहा है तो दूसरी ओर बच्चे लुकाछिपी खेल रहे हैं।
मेरे अपने गाँव में मुसलमान परिवारों की संख्या ज्यादा नहीं है। सन सैंतालीस से पहले कुछ अधिक परिवार थे। पर उसके बाद उनकी संख्या क्रमशः कम होती गई। वे कहाँ गए, इसके बारे में कोई कुछ नहीं जानता। अब सिर्फ तीन-चार परिवार रह गए हैं और उनका एक छोटा-सा कब्रिस्तान है, जो गाँव के एक सिरे पर है। मुझे याद नहीं कि आधुनिक सुविधाओं से वंचित उस छोटे-से गाँव में कभी कोई सांप्रदायिक तनाव हुआ हो। हाँ, एक बात ज़रूर हुई है कि कब्रिस्तान की भूमि थोड़ी पहले से सिकुड़ गई है, जिसे चारों ओर से बाँस और नागफनी के जंगल ने ढक लिया है।
शायद यही कारण है कि वह छोड़ी हुई भूमि आबादी का हिस्सा बनने से बच गईं। पर सभी जगह ऐसा नहीं है। हम सब जानते हैं कि कब्रिस्तान की भूमि को लेकर छोटे-मोटे तनाव होते रहते हैं। कई बार इसकी दुर्भाग्यपूर्ण परिणतियाँ भी देखी गई हैं। एक ऐसे ही अवसर पर होने वाली पंचायत में मुझे शामिल होना पड़ा था, जिसकी स्मृति मेरे 380 जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण स्मृतियों में से एक है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिस छोटे-से टाउन में मैं प्राचार्य-पद पर काम करता था, उसके आसपास के गाँवों में मुस्लिम आबादी अच्छी-खासी थी।
पर कुल मिलाकर बुद्ध की स्मृति की छाया में पलने वाला वह जनपद सांप्रदायिक सौहार्द के लिहाज़ से काफ़ी शांत रहा है और किसी हद तक आज भी शांत है। पर एक बार एक कस्बेनुमा-गाँव में, जहाँ दोनों संप्रदायों की आबादी लगभग बराबर थी, एक छोटी-सी घटना घट गई। वह होली के आसपास का समय था, जब हवा में पकी हुई फसल की एक हल्की-सी गंध घुली रहती है। पर तनाव की प्रकृति शायद यह कहती है कि वह कभी भी और कहीं से भी पैदा हो सकता है- फिर वह कब्रिस्तान की बंजर भूमि ही क्यों न हो।
अचानक यह खबर फैली कि उस गाँव में दंगा हो गया है और आशंका थी कि कहीं वह पूरे इलाके में आग की लपट की तरह फैल न जाए। जिलाधिकारी ने समय रहते अपने पूरे पुलिस-बल के साथ हस्तक्षेप किया और फसाद थम गया। पर सिर्फ यह थमा था, खत्म नहीं हुआ था। फिर जिलाधिकारी की पहल पर ही इलाके के कुछ प्रमुख लोगों को बुलाया गया, जिसमें महाविद्यालय का प्रिंसिपल होने के नाते मैं भी शामिल था। फिर पूरी टोली उस स्थान पर ले जाई गई, जहाँ से दंगा शुरू हुआ था।
वह कब्रिस्तान की ज़मीन थी, जिसके एक किनारे पर दो-चार घर बने हुए थे और मवेशियों के लिए कुछ दोचारे भी। वहाँ दोनों समुदायों के कुछ वरिष्ठ लोग बुलाए गए और तय हुआ कि समस्या का समाधान पंचायत के द्वारा निकाला जाएगा। जिलाधिकारी ने घोषित किया कि दोनों पक्ष के लोग एक-एक पंच मनोनीत करेंगे और दोनों मिलकर जो फैसला करेंगे, वह दोनों ही समुदायों को मान्य होगा। बहुसंख्यक समुदाय ने पहले निर्णय किया और फिर मुझे बताया गया कि वहाँ से मेरे नाम का प्रस्ताव किया गया है।
अल्पसंख्यक समुदाय के निर्णय में थोड़ा समय लगा, पर अंततः उन्होंने भी एक फैसला कर लिया और उसे एक चिट पर लिखकर जिलाधिकारी की ओर बढ़ा दिया। उन्होंने चिट को खोला और फिर मेरी ओर बढ़े। बोले-अद्भुत निर्णय है, अल्पसंख्यक समुदाय ने भी आप ही को चुना है। जिलाधिकारी महोदय चकित थे, पर इसके पीछे जो संकेत था, उससे थोड़े आश्वस्त भी। चकित तो मैं भी था कि आखिर यह हुआ कैसे? पर मेरी असली परीक्षा अब थी।
जो दायित्व मुझे सौंपा गया था, उसके लिए मैं सक्षम हूँ, इसको लेकर गहरे संदेह मेरे भीतर थे। मेरी सबसे बड़ी सीमा तो यह थी कि मैं उस तनाव के इतिहास और उसकी पृष्ठभूमि से बिलकुल अपरिचित था। पर मेरे सौभाग्य से उस गाँव के प्रधान एक वृद्ध मुसलमान थे, जो पेशे से डॉक्टर थे और जिनकी शिक्षा-दीक्षा कश्मीर में हुई थी। मैं उनसे मिला और मेरे प्रति समुदाय ने जो विश्वास व्यक्त किया था, उसके लिए उनका शुक्रिया अदा किया। फिर रहा न गया तो पूछ लिया-“आखिर आप लोगों ने यह कैसे समझा कि मैं आपके विश्वास का पात्र हूँ।
“वह बोले “हम आपको नहीं जानते। पर हमारे लड़के जो आपके यहाँ पढ़ते हैं, उन्होंने आपके बारे में जो बता रखा था, यह फैसला उसी की बुनियाद पर किया गया।” मैं अवाक् था- और उस गुरुतर दायित्व के भार से दबा हुआ भी, जो अचानक मुझ पर डाल दिया गया था। पर मेरी परेशानी को शायद डॉक्टर ने जान लिया। जैसा कि बता चुका हूँ, वे उस गाँव के प्रधान भी थे, वे मुझे कुछ दूर ले गए और सारे संघर्ष की कहानी बताई, जो संक्षेप में यह थी कि बहुसंख्यक समुदाय ने कब्रिस्तान की लगभग आधी ज़मीन पर कब्जा कर लिया है और यह काम एक दिन में नहीं, कोई चालीस-पचास वर्षों से धीरे-धीरे होता आ रहा था।
फिर उन्होंने निष्कर्ष दिया”ज्यादती उनकी है, गलती हमारी।” मैंने पूछा-“गलती कौन-सी?” बोले-“हमने कभी एतराज़ नहीं किया-इसलिए पचास साल बाद एतराज़ करना बिलकुल बेमानी है।” मैंने पूछा-“फिर रास्ता क्या है?” वे कुछ देर सोचते रहे। फिर बोले-“एक ही रास्ता है, जहाँ तक कब्जा हो चुका है, उसमें से कुछ गज़ ज़मीन हमें लौटा दी जाए, ताकि हमें लगे कि हमारी भावना का सम्मान किया गया। उसके बाद जो सीमा-रेखा तय हो, उस पर दीवार खड़ी कर दी जाए, जिसका खर्च दोनों पक्ष बर्दाश्त करें।
“वृद्ध डॉक्टर का दिया हुआ फार्मूला मैंने सभी के सामने इस तरह रखा जैसे कि वह पंचायत का (यानी कि मेरा) फैसला हो। पर मेरा उसमें कुछ नहीं था। यह कहते हुए कि ‘दीवार खड़ी कर दी जाए’ मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं थोड़ा अटका था- क्योंकि मुझे एक और बड़ी लेकिन अदृश्य दीवार याद आ गई, जो देश के नक्शे में खड़ी कर दी गई थी। पंचायत ने फैसला किया आई उठ गई। यह कोई 25-26 साल पहले की बात है। मैं नहीं जानता उस दीवार का क्या हुआ? शायद वह बनी हो और शायद उसे कुछ साल बाद तोड़ दिया गया हो–पर यही क्या कम है कि उसके बाद वहाँ से फिर किसी फसाद की खबर नहीं आई।
प्रश्नः 1.
कब्रिस्तान का कौन-सा पहलू लेखक को दिलचस्प लगता है?
उत्तर:
लेखक कहता है कि कब्रिस्तान वह जगह है जहाँ सारी पंचायतें खत्म हो जाती हैं। यहाँ का यह पहलू दिलचस्प है कि कई बार मृतकों के घर के आजू-बाजू जिंदा लोगों के भी घर होते हैं। जीवन और मृत्यु का यह विलक्षण सह-अस्तित्व सिर्फ कब्रिस्तान में ही दिखाई देता है। परियोजना
प्रश्नः 2.
जिलाधिकारी महोदय बहुसंख्यक एवं अल्पसंख्यक समुदाय के निर्णय से एक साथ चकित एवं आश्वस्त गए?
उत्तर:
जिलाधिकारी महोदय बहुसंख्यक एवं अल्पसंख्यक समुदाय के निर्णय से एक साथ चकित इसलिए हुए, क्योंकि दोनों ही समुदायों ने लेखक को अपना पंच नियुक्त किया था। यह आश्वस्त इसलिए हुआ क्योंकि लेखक महाविद्यालय का प्राचार्य था तथा इस क्षेत्र से संबंधित नहीं था। वह निष्पक्ष था तथा धर्मांध नहीं था। उसे लगा अब सही निपटारा हो जाएगा। अतः वह आश्वस्त था।
प्रश्नः 3.
वृद्ध मुसलमान ने लेखक को निर्णय का क्या मार्ग सुझाया?
उत्तर:
वृद्ध मुसलमान ने लेखक को सुझाया कि जहाँ तक कब्जा हो चुका है, उसमें से कुछ गज जमीन मुसलमानों को वापिस दी जाए ताकि उन्हें यह लगे कि उनकी भावनाओं का सम्मान किया गया। उसके बाद तय सीमारेखा पर दीवार खड़ी कर दी जाए जिसका खर्च दोनों पक्ष बर्दाश्त करें।
प्रश्नः 4.
फैसला सुनाते समय लेखक को किस ‘अदृश्य दीवार’ की याद आ गई और क्यों?
उत्तर:
फैसला सुनाते समय लेखक को भारत-पाक विभाजन की अदृश्य दीवार की याद आ गई जो देश के नक्शे पर खड़ी कर दी गई थी। उसके विभाजन का कारण भी धर्म था। मुसलमान व हिंदुओं का झगड़ा था। यहाँ भी उन्हीं दो समुदायों में विवाद था। अतः उसे अदृश्य दीवार की याद आ गई।
प्रश्नः 5.
आशय स्पष्ट कीजिए-
(क) कब्रिस्तान वह जगह है जहाँ सारी पंचायतें खत्म हो जाती हैं।
(ख) जीवन और मृत्यु का यह विलक्षण सह-अस्तित्व सिर्फ एक कब्रिस्तान में ही दिखाई पड़ता है।
(ग) तनाव की प्रकृति शायद यह होती है कि वह कभी भी और कहीं से भी पैदा हो सकता है।
उत्तर:
(क) लेखक कहना चाहता है कि शमशान जीवन का पड़ाव है। यहाँ पर सारे संसार की पंचायतें खत्म हो जाती हैं, यहाँ सारे झगड़े समाप्त हो जाते हैं।
(ख) लेखक का मत है कि जीवन और मृत्यु दोनों साथ-साथ हों, ऐसा विलक्षण सह-अस्तित्व सिर्फ एक श्मशान में ही दिखाई पड़ता है।
(ग) लेखक बताता है कि तनाव की प्रकृति अद्भुत है। इसका स्वभाव शायद इस प्रकार का होता है कि यह कभी भी और कहीं से भी पैदा हो सकता है। इसका स्थान व समय निर्धारित नहीं होता। सकी प्रकृति अदभुत है। इसका स्वभाव शादत इस प्रक परियोजना कार्य-5
परियोजना कार्य-5
विषय उत्सवधर्मी महादेवी
होली अब बिलकुल सामने…. 16 मार्च को जलेगी और अगले दिन 17 मार्च को खेली जाएगी और शायद 18 मार्च को भी। रंग का त्यौहार है और वैसे ही लाल-काले-हरे-नीचे-पीले बैंगनी और पता नहीं कौन-कौन से सबके मिले-जुले रंग तो चलेंगे ही, वे भयानक जाने कैसे-कैसे केमिकल मिले हुए रंग भी चलेंगे, जो छुड़ाए नहीं छूटते, भले ही रगड़ते-रगड़ते खाल उधड़ जाए। लेकिन वह सब तो होलिका-दहन के अगले दिन होगा, अभी तो मेरा मन रह-रहकर महादेवी जी के यहाँ एक अनुष्ठान के रूप में पूरे विधि-विधान से किए जानेवाले होलिका-दहन की ओर भाग रहा है जो मेरे जैसे और भी बहुत से लोगों की जिंदगी का एक खास दिन बन गया था।
टोले-पड़ोस के हम सब लोग तो जमा होते ही थे, कुछ साहित्यकार और साहित्य रसिक बंधु काफ़ी दूर-दूर से भी आते थे। सब लोग हर साल न भी पहुँच पाते हों….कभी कोई बीमार पड़ गया, कभी अपने बाल-बच्चों के पास या दूसरे किसी ज़रूरी काम से शहर से बाहर कहीं जाना पड़ गया या और किसी कारण से संयोग नहीं बना….तो भी अपनी अनुपस्थिति के बोध के नाते ही सही, वह शाम तो उनके साथ रहती ही थी।
पिछले बत्तीस वर्षों से मेरा घर महादेवी जी के घर के बहुत पास है, इसलिए सहज ही मुझे उनका घर के इस आयोजन में शरीक होने का मौका बार-बार मिला और संदेह नहीं कि बाल-बच्चों समेत मेरे परिवार के सभी लोगों के लिए यह एक बड़ी सुखद स्मृति रही है। और अब तो जैसे बरसों से महादेवी जी हमारे बीच नहीं हैं, फिर भी उनकी चलाई हुई परंपरा का निर्वाह उसी उत्साह से होता है। महादेवी जी के घर से उस बड़े से अहाते में पेड़ों की क्या कमी। ढेरों ही पेड़ हैं और सब तरह की मोटी-पतली लकड़ियाँ, पत्तियाँ, झाड़-झंखाड़, सबको ढंग से जमाकर होलिका सजा दी जाती।
उसकी पार्श्व भूमि यज्ञभूमि की तरह खूब ढंग से लीप दी जाती, फिर आटे से, रोली से उस होलिका की परिक्रमा पूर दी जाती। कभी महादेवी जी खुद भी इन सब कामों में हाथ बँटाया करती थीं लेकिन बाद में उम्र बढ़ने और शरीर शिथिल होने पर घर के दूसरे लोग ये सब काम करने लगे, तब भी देख-रेख उन्हीं की होती थी। फिर सभी लोग परिक्रमा करते और होलिका से ज़रा हटकर लगाई गई कुरसियों पर आकर बैठ जाते और नौजवानों की टोलियाँ अपने छोटे-छोटे गुच्छों में यहाँ-वहाँ खड़ी हुई चुहलबाजी करने लगतीं और फिर महादेवी जी एक थाली में राई-नोन और जाने क्या कुछ लेकर सबकी नज़र उतारतीं, जो इस पूरे आयोजन की एक बहुत खास चीज़ थी।
यों देखों तक कुछ नहीं लेकिन जहाँ सारा खेल स्नेह और सद्भावना का हो, यह चीज़ उनकी स्मृति का एक ऐसा प्रतीक बन जाती जो आज भी दिल को कचोटता है। होली के सब पकवान, जो उन्होंने बड़े जतन से और बड़े प्यार से खुद अपने हाथों से बनाए होते, एक तरफ बड़े-बड़े थालों में सजे हुए रखे रहते। होलिका की पूजा और परिक्रमा पूरी होने पर पकवानों के थाल सबके सामने पहुँचते और खाने-पीने और उसी के साथ-साथ अबीर-गुलाल की सूखी होली शुरू हो जाती, जिसमें हुड़दंग भले न हो, पर छेड़-छाड़ तो अच्छी खासी होती थी, और अगर वह भी न हो तो फिर होली कैसी! सब कुछ चला जाता है, मिट जाता है, बस एक याद बच जाती है उसकी, जो एक ओर बहुत मीठी होती है और दूसरी ओर उतनी ही उदास। महादेवी जी के संदर्भ में कुछ और ज़्यादा उदास।
कारण जो भी रहे हों, मैं नहीं जानता और सच तो यह है कि शायद कोई भी नहीं जान सकता … किन्हीं दो व्यक्तियों के संबंधों को ठीक-ठीक समझ पाना, पढ़ पाना बहुत कठिन है और पति-पत्नी के संबंध तो ऐसे कोमल धागे के बने होते हैं, इतने नाजुक होते हैं कि एक फॅक, एक इशारे से भी टूट सकते हैं, लेकिन यह तो एक कठोर सच्चाई है कि उन्होंने पति का सुख नहीं जाना, बाल-बच्चों का सुख नहीं जाना, माँ बनने का सुख नहीं जाना।
उनका यह होलिका दहन का आयोजन और भी सब तीज-त्यौहार को बहत विधिवत, उत्साहपूर्वक मनाना मेरे देखने में निश्चय ही एक स्तर पर उनके भीतर की उस पारिवारिकता की भूख से जुड़ा हुआ था। देवोत्थानी एकादशी है तो उस दिन पहली बार गन्ना बाज़ार से आएगा और घर में रहने वाले सब लोग उसे चूसेंगे। शकरकंद मँगाई जाएगी और फिर घर के सब लोग प्रेमपूर्वक उसका सेवन करेंगे। वसंत पंचमी आएगी तो लड़कों के लिए कुरते पीले रंगे जाएँगे, टोपियाँ रंगी जाएँगी, लड़कियों के लिए पीली चुनरियाँ होंगी।
मकर संक्रांति के रोज उड़द की खिचड़ी तो बनेगी ही बनेगी और उसके साथ खिचड़ी के चार यार बड़ी, पापड़, घी, अचार भी होंगे ही। मधुरेण समापयेत् के लिए नई काले तिल के लड्डू का होना भी जरूरी है। एक बार यह सुनकर बड़ा अटपटा-सा लगता है कि उन जैसे एक बड़े साहित्यकार को जो महिला विद्यापीठ जैसे एक संस्था की प्रधानाचार्या भी थीं और जिनका एक सा निपट एकाकी जीवन था, बड़ी-मुंगौड़ी, अचार-मुरब्बे बनाने का समय कैसे मिल पाता था। और उससे भी बड़ी बात इसकी प्रेरणा भी कैसे होती थी? जैसे भी होती हो, होती थी और खूब होती थी।
ये भी उसी पारिवारिकता को पाने का एक उपक्रम था जिससे वे अपने वास्तविक जीवन में वंचित रहीं। अपने घर आए हुए व्यक्ति का स्वागत सत्कार करना उन्हें बहुत अच्छा लगता था। जो भी परिचारिका उस समय साथ रही, मिलने वाले के आते ही यानी दस-पाँच मिनट के अंदर चाय लाने का आदेश दे दिया जाता और चाय कुछ ही देर में आ जाती। उसके साथ कुछ मिठाई-नमकीन, बिस्कुट, कोई मौसमी फल, जैसे सेब, अमरूद, संतरा, केला यानी कि जी खोलकर स्वागत होता।
इसको लेकर मुझे अनगिनत बार उनकी झिड़की सुननी पड़ी है। मैं अपने कमज़ोर पेट के कारण वे सब मिठाई-नमकीन, बिस्कुट-विस्कुट न खाता तो मुझे वे कभी न बख्शतीं और कहती-तो फल तो खाओ और अपने हाथ से सब, अमरूद की फाँकें काटकर खिलातीं। फिर किसकी हिम्मत थी कि नाहीं करे। आत्मीय जनों को इस तरह प्यार से खिला-पिलाकर उन्हें बड़ा सुख मिलता था। सुभद्रा कुमारी ‘चौहान’ उनकी बचपन की सहेली थीं। इसलिए उनके प्रति महादेवी का विशेष अनुराग था।
सुभद्रा जी का संस्मरण अपनी पुस्तक ‘पथ के साथी’ में लिखते हुए वे बताती हैं कि कैसे पैंसठ साल पहले वे एक बार सुभद्रा के घर जबलपुर गई थीं और फिर कैसे दोनों सहेलियों ने आपस में शर्त लगाकर घर के उस आँगन को लीपा था- एक ने एक सिरे से और दूसरे ने दूसरे सिरे से लीपना शुरू किया और शर्त यह थी कि कौन पहले अपना हिस्सा लीप लेता है और ज्यादा अच्छा ज़्यादा चिकना लीपता है।
और तभी अपनी कविता-गोष्ठी में ले जाने के लिए जब दो-चार स्थानीय लेखक/कवि पहुँचे थे, तो इन दोनों देवियों को इस तरह दत्तचित्त होकर आँगन लीपते देखकर ठगे-से खड़े रह गए थे। महादेवी को दूसरी स्त्रियों की तरह का अपना परिवार, जीवन में नहीं मिला तो उन्होंने अपना एक साहित्यिक परिवार तो बनाया ही, अपने कुत्तों-बिल्लियों-गिलहरी और हिरन आदि का अपना जीवंत परिवार बनाया और इस अर्थ में कि ये सभी जीव-जंतु पूरी तरह उन्हीं पर आश्रित थे।
उनके माध्यम से महादेवी जी के मन के भीतर निभृत एकांत में दबा पड़ा उनका अतृप्त मातृत्व अद्भुत तृप्ति परियोजना पाता था। जैसी ममता से वे अपने इन कुत्ते-बिल्लियों की देखभाल करती थीं, वह सचमुच बहुत मार्मिक था। उनके कुत्ते कोई ऊँची नस्ल के ट्रेंड कुत्ते तो थे नहीं, बिलकुल साधारण सड़क-छाप कुत्ते थे लेकिन वे उन पर जैसी ममता बिखरेती थीं वे उन्हें विशिष्ट बना देता था उदाहरण के लिए जब कोई कुतिया बच्चे जनती तो महादेवी जी अपने हाथों से उन्हें दूध पिताली, रूई के फाहे से, धीरे-धीरे बड़े प्यार से।
सच्चे अर्थों में वह उनका अपना, बहुत अपना परिवार था। मैं उन दिनों ‘नई कहानियाँ’ निकाल रहा था। मेरे मित्र गंगाप्रसाद पांडेय ने एक रोज उनके इस परिवार के एक सदस्य-शायद गिलहरी या मोर की कहानी, ठीक याद नहीं-पर महादेवी जी के सुंदर अक्षरों में उनके हाथ का लिखा हुआ एक ललित लेख मुझे लाकर दिया। मैंने जब उसे छापा तो, चूँकि उसी तरह के और भी लेख मिलने वाले थे, मैंने उस लेख को एक लेखमाला का पहला लेख बनाते हुए उस पर सामान्य शीर्षक लगा दिया था ‘मेरा परिवार’।
मैंने न तो महादेवी जी से इसके बारे में कुछ कहा और न उसकी ज़रूरत ही थी। कालांतर में जब वे लेख संग्रहीत होकर पुस्तक के रूप में ‘मेरा परिवार’ के नाम से ही छपे तो जैसे इस बात की पक्की सनद मिल गई कि मैंने शायद उनके मन के भाव को ठीक ही पढ़ा था।
प्रश्नः 1.
महादेवी जी के साथ लेखक की आत्मीयता स्थापित होने का क्या कारण था?
उत्तर:
लेखक का घर महादेवी के घर के बहुत पास है। इसलिए वे उनके घर के होली के आयोजन में अकसर नाच लेते थे। यह व्यवस्था बत्तीस वर्षों तक रही। अतः उनकी महादेवी के साथ आत्मीयता स्थापित हो गई थी।
प्रश्नः 2.
महादेवी जी के यहाँ ‘देवोत्थानी एकादशी’ कैसे मनाई जाती थी?
उत्तर:
देवोत्थानी एकादशी के दिन पहली बार गन्ना बाज़ार से आता है और महादेवी के घर में रहने वाले सभी लोग उसे चूसेंगे। शकरकंद मँगाकर सभी सदस्य उसे खाएँगे। इस प्रकार महादेवी के यहाँ ‘देवोत्थानी एकादशी’ मनाई जाती है।
प्रश्नः 3.
महादेवी जी को कविता-गोष्ठी में ले जाने आए स्थानीय लेखक आश्चर्यचकित क्यों रह गए?
उत्तर:
महादेवी जी को कविता गोष्ठी में जाना था, परंतु उनकी बचपन की सहेली सुभद्रा कुमारी ‘चौहान’ से शर्त लगाई गई कि घर के आँगन को कितना जल्दी व चिकना कौन लीपता है। उन्हें आँगन लीपते देख स्थानीय लेखक आश्चर्यचकित रह गए।
प्रश्नः 4.
साधारण नस्ल के कुत्ते भी महादेवी जी के पास आकर विशिष्ट कैसे बन जाते थे?
उत्तर:
साधारण नस्ल के कुत्ते भी महादेवी जी के पास आकर विशिष्ट बन जाते थे, क्योंकि वे उनपर ममता बिखेरती थीं। इसी कारण वे विशिष्ट बन जाते थे।
प्रश्नः 5.
महादेवी जी ‘होलिका दहन’ की तैयारियाँ किस प्रकार करती थीं?
उत्तर:
महादेवी जी के घर ‘होलिका दहन’ का पूरा अनुष्ठान होता था। इसमें आस-पड़ोस के लोग, साहित्यकार व साहित्य रसिक बंधु काफ़ी दूर-दूर से आते थे। इनके घर में ढेरों पेड़ थे। अतः सब तरह की मोटी-पतली लकड़ियाँ, पत्तियाँ, झाड़-झंखाड़ सबकों ढंग से जमाकर होलिका सजा दी जाती। उसकी पार्श्ववर्ती भूमि यज्ञभूमि की तरह खुब ढंग से लीप दी जाती। फिर आटे व रोली से उस होलिका की परिक्रमा पूर दी जाती। फिर सभी लोग परिक्रमा करते तथा होलिका से हटकर लगाई गई कुरसियों पर बैठ जाते। दहन के बाद महादेवी द्वारा बनाई मिठाई खिलाई जाती।
प्रश्नः 6.
मकर संक्रांति और बसंत पंचमी पर महादेवी जी के घर पर क्या-क्या आयोजन किया जाता था?
उत्तर:
मकर संक्रांति के अवसर पर महादेवी के घर प्रत्येक वर्ष उडद की खिचडी बनती तथा उसके साथ बडी, पापड, घी व अचार भी होता था। वसंत पंचमी के दिन लड़कों के लिए कुरते व टोपियाँ पीले रंग से रंगे जाते थे तथा लडकियाँ पीली चुनरी पहनती थीं।
प्रश्नः 7.
लेखक. के लिए होली के अवसर पर महादेवी जी के घर पर आयोजन में शामिल होना सुखद स्मृति क्यों है?
उत्तर:
होली के अवसर पर महादेवी जी के घर अनुष्ठान के रूप में होलिका दहन होता था। उनके घर में ढेरों पेड़ थे। सब तरह की मोटी-पतली लकड़ियाँ, पत्तियाँ आदि ढंग से जमाकर होलिका सजा दी जाती। उसकी पार्श्ववर्ती भूमि यज्ञभूमि की तरह खब ढंग से लीपी जाती और आटे व रोली से होली की परिक्रमा पूर दी जाती। फिर सभी लोग परिक्रमा करते तथा वहाँ लगाई कुरसियों पर बैठ जाते। फिर महादेवी जी एक थाली में राई-नोन और जाने क्या कुछ लेकर सबकी नज़र उतारतीं, जो इस पूरे आयोजन की एक बहुत खास चीज़ थी। यहाँ सब कुछ स्नेह व सद्भावना से होता था। फिर महादेवी अपने हाथों से बनाए पकवान सबको खिलाती। फिर सूखी होली शुरू होती थी। इस प्रकार यह सुखद स्मृति थी।
प्रश्नः 8.
महादेवी जी अपने जीवन में आई पारिवारिक अपूर्णता की तृप्ति किस प्रकार करती थीं?
उत्तर:
महादेवी जी को अपने जीवन में दूसरी स्त्रियों की तरह अपना परिवार नहीं मिला। फिर भी उन्होंने अपना एक साहित्यिक परिवार बनाया। अपने कुत्तों-बिल्लियों-गिलहरी और हिरन आदि का अपना जीवंत परिवार बनाया। उन्हें पूर्णतः अपने ऊपर आश्रित बनाया। इनके माध्यम से महादेवी जी के मन के भीतर निभृत एकांत में दबा पड़ा उनका अतृप्त मातृत्व अद्भुत
तृप्ति पाता था।
प्रश्नः 9.
लेखक ने महादेवी जी की लेखमाला को ‘मेरा परिवार’ शीर्षक क्यों किया?
उत्तर:
लेखक को महादेवी के हाथ का लिखा कोई लेख मिला जो उनके परिवार के एक सदस्य गिलहरी या मोर पर था। लेखक को पता था कि महादेवी के परिवार में अनेक जानवर थे और आगे भी उसी तरह के लेख मिलने वाले थे, अतः उन्होंने उसे एक लेखमाला का पहला लेख बनाते हुए उस पर सामान्य शीर्षक लगा दिया था-मेरा परिवार। महादेवी जी ने भी इस शीर्षक पर आपत्ति नहीं की। वह उनकी मौन स्वीकृति थी।